घड़ा – नवगीत
स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,
मैं क्यों अब तक रिक्त पड़ा.
जाने कब नंबर आयेगा,
यही सोचता रोज घड़ा.
नदिया सूखी, पोखर प्यासे,
तालाबों की वही कहानी.
झरने खूब बहे पर्वत से,
जाने किधर गया सब पानी.
गूगल से भी पूछा उसने,
मगर प्रश्न है वहीं खड़ा.
घुप्प अँधेरी रही तलहटी,
सूरज उगा नित्य शिखरों पर.
झुलस रहा धरती का आँचल,
सुनता एक न उसकी अम्बर.
सागर पर जल बरसाने को,
इंद्र देवता रहा अड़ा.
कहाँ कभी बरगद के नीचे,
कोई भी पौधा उग पाया.
बड़ी मछलियों ने छोटी को,
हर युग में निज ग्रास बनाया.
आखिर में बस वही बचा, जो
अपने दम पर हुआ बड़ा.