घूम घूम कर मैं थक हारा
घूम घूम कर,मैं थक कर हारा
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घूम घूम कर,मैं थक कर हारा
मन मीत नहीं,देखा जग सारा
जब तक जेब में है भरा पैसा
जग में नहीं है कोई उस जैसा
जब रहती जेब पैसों से खाली
साथ छोड़ देवे तब हम प्याली
माया मन ठगनी का है पहरा
मन चंचल अंदर छाया कोहरा
जिसका जितना भला कर लो
बेवफा होगा,तुम वफा कर लो
कलयुग का है चारों ओर फेरा
बाँधता नहीं कोई सिर सेहरा
मन अन्दर नहीं रहा भाव सेवा
बदले में मांगता है माया मेवा
यहाँ कोई भी नहीं रहा टिकाऊ
रिश्ते नाते बन गए है बिकाऊ
इंसान इंसानियत को भूल गया
प्रलोभनों में स्वयं है डूब गया
कामनाएं हो चली हैं असीमित
संसाधन पूर्ण करने के सीमित
सुखविंद्र ओर कहाँ तक जाऊँ
जहाँ मानवता से मैं मिल आऊँ
सुखविंद्र सिहं मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)