घूमां हूँ मैं गली गली
घूमा हूँ मैं गली गली
ढूंढता अपनी परछाईं
ढूंढ रहा हूँ बचपन अपना
बचपन की वह अंगड़ाई।
अल्हड़ सा आवारा बादल
बिन बरसातें बरस रहा
ममता का भीगा सा आँचल
भींच कर मुझ को जकड़ रहा।
उमस भरे जीवन में जैसे
बहने लगी हो पुरवाई
ढूंढ रहा हूँ बचपन अपना
बचपन की वह अंगड़ाई।
खेला जिन से बचपन मे
वे मीत कहाँ कुछ तो बोलो
कहाँ विलय हो बैठा वह स्वर
राज जरा इस का खोलो
सोचते कैसे बीते पल छिन
मेरी आँखें भर आईं।
ढूंढ रहा हूँ बचपन अपना
बचपन की वह अंगड़ाई।
लाखों हीरे माणिक मोती
तोल नहीं सकते वे पल
धुंधली सी उन यादों को
रवि नहीं कर सकते उज्जल।
बुझती आँखों का बन सपना
यह याद क्यों चली आई
ढूंढ रहा हूँ बचपन अपना
बचपन की वह अंगड़ाई।
विपिन