“घिर आई रे बदरिया सावन की” (लेख)
“घिर आई रे बदरिया सावन की”
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जी चाहे बारिश की स्याही,बनूँ कलम में भर जाऊँ।
मन के भाव पिरो शब्दों में,तुझको पाती लिख पाऊँ।।
नेह सरस हरियाली में भर, धानी चूनर लहराऊँ।
रेशम धागे राखी बन मैं,वीर कलाई इठलाऊँ।।
ग्रीष्म की तपिश से शुष्क सृष्टि को बूँदों की सरगम सुनाता मनभावन “सावन” जब छपाक से आता है तो काली बदरी की ओट से लुकाछिपी करता सूरज इ्द्रधनुषीय रंगों की छटा बिखेर कर धरती का आलिंगन करता है।अलसाई प्रमुदित प्रेम के वशीभूत धरा का प्रकृति श्रृंगार करती है।ऐसा प्रतीत होता है मानो हरियाली की मेंहदी रचाए, नीम तले झूले पर पेंग लगाती टोलियाँ, सोलह श्रृंगार कर गीत गाती सखियाँ , मेला देखने को ललचाती अँखियाँ, रक्षाबंधन पर मायके की याद में पाति लिखती बेटियाँ ,प्रीतम की याद में नयनों से नीर छलकाती गोरियाँ सावन की मनभावन ऋतु का स्वागत कर रही हों। यौवन को भिगो देने वाली बारिश और खिलखिलाती प्रकृति में उमंग से उन्मादित कुलांचे मारता मन मयूर भाव -विभोर होकर नाचने लगता है। कोयल के मीठे सुरीले स्वर कानों में ऐसी मंत्रमोहिनी डालते हैं कि तन-मन कंपित हो प्रीतम का राग अलापने लगता है। साहित्यकारों की कलम चल पड़ती है तो कलाकार की तूलिका मूक तस्वीर में रंग भरकर उसे साकार करती जान पड़ती है।उमड़-घुमड़ कर बरसते काले बादलों में दामिनी की कर्कश ध्वनि विरहणी की वीरान ,तन्हा ,लंबी, स्याह रात को नागिन की तरह डँसने चली आती है। फूलों की सेज शूल की तरह चुभन का एहसास कराती सखी से ढेरों सवाल कर बैठती है। देह में अगन लगाती बारिश में प्यासा सावन घर की दहलीज़ से लौट जाता है और पिया मिलन की आस में राह तकती अँखियाँ पथरा जाती हैं। श्रृंगार व विरहा के संगम का अनूठा गवाह सावन गोद में तीज-त्योहारों को झूला झुलाता आता है तो धरती धानी चूनर ओढ कर , दुलहन सी लजाती, घूँघट के पट से झाँकती है। ऐसे में धरती को आगोश में भरकर , यौवन का रसपान करने को आतुर जलमग्न काले बादल झूम कर धरा पर टूट पड़ते हैं। हरी घास व फूल -पत्तियों पर बिखरी ओस की बूँदें प्रकृति की माँग भरकर प्रीतम का स्वागत करती नज़र आती हैं। मायके में सखियों के साथ मेंहदी रचाते हाथ, साजन के साथ गुजारे लम्हों की मनभावन छेड़छाड़ और गुदगुदी करते , मचलते अरमान, थालों में सजते मीठे जालीदार घेवर , बंधेज व लहरिये की साड़ियों में सुसज्जित बनी-ठनी ललना, सरसता से परिपूर्ण मानस अतंस को भिगोते सुहावने गीत सबका मन मोह लेते हैं।केसरिया जामा पहने , कांवरिये गाते-बजाते ,भक्ति की रसधार बहाते भोले की नगरी काशी की ओर चल पड़ते हैं। बाबा विश्वनाथ की अदभुत महिमा का दर्शन पाकर जनमानस भक्ति भाव से भोले का गुणगान करके काशी की धरा पर भक्ति की रसधार बहा देता हैं।नाग पंचमी,रक्षाबंधन, चाँदछट्ट, कजरी तीज, हरियाली तीज जैसे त्योहार सावन को महत्त्वपूर्ण बना देते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी (मो.-9839664017)