“घर”
“घर”
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‘घर’ सबको, प्यारा होता!
ये सबका ही सहारा होता,
‘घर’में ढूंढता, सब चैन है;
घर में रुकता, सब रैन है।
घर ही तो , आवास होता;
यहीं, सबका प्रवास होता।
यहां, सबके सपने होते हैं;
यहीं, सबके अपने होते हैं।
इसे,कुटीर कहें या आलय;
यही तो होता है , देवालय।
यहां सब,अपने ही बसते हैं,;
पर, अपने -अपने रिश्ते हैं।
‘गृह’भी यही तो कहलाता है,
कई ग्रहों को, दूर भागता है।
कोई इसे ही कहे, निज डेरा;
तो कोई कहे ,अपना बसेरा।
ये , कच्ची हो या हो पक्की;
सबको लगती,अपनी अच्छी।
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……. ✍️ पंकज “कर्ण”
…………..कटिहार।।