घर-द्वार
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जिसने ईंट बनाए।
जिसने नींव खोदे।
जिसने पसीने बहाये।
पत्थरों,औजारों के खरोंच
सहे देह पर, जिसने।
धूल,माटी,सीमेंट के ‘पावडर’
भरे फेफड़ों में,जिसने।
गारा जिसने बनाया।
ईंटों को जोड़ा जिसने।
पानी में गला दिनभर जो।
आकाश में लटका और
घर पर गिरने से आकाश को
रोका जिसने।
औरतों ने शिशुओं को थप्पड़ जड़े
इसलिए कि
दूध पीने या चिपटे रहने की जिद पर
अड़ा था।
उधर ‘सुपरवाइज़र’ सिर पर खड़ा था।
और निर्जन,खामोश टुकड़े को
पृथ्वी के
अट्टालिकाओं से दिया भर।
दिन के अवसान पर
खाया या नहीं खाया
पर पीया तो जरूर आज,
अपने कल को,
अपने को कल,
दुहराने के लिए।
और पसर गया
उस आकाश के नीचे
जिसे
तोड़ने की जिद पर अड़ा था।
यही आकाश उसके सिर पर
उसके घर-द्वार सा
दृढ़ होकर खड़ा था।
इसमें आँसू खोजिए।
और पोंछने का जतन कीजिए।
श्रम संस्कार है।
इसे संस्कृति से जोड़िए।
इसे तिरस्कृत न कीजिए।
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