कश्मकश….. बेटियों की
बेटी,
जिसे नाज़ों से पाला
उसी को घर से निकाला।
घर,
उसका था ही नहीं
‘बेगाने’ हो जाते अपने
‘अपने’ हो जाते बेगाने।
नया घर
नई पहचान
नई उम्मीदें
नया विश्वास
नए माहौल
नए रिश्ते – नाते
नई जिम्मेदारियां।
अहसाह तो था
अनुभव नहीं।
कितने मनोभावों
अहसासों से भरा होता यह पल।
क़दम,
नए जीवन की ओर।
क्यों होतें हैं नए
पहले जिम्मेदारियां नहीं लीं
रिश्ते नहीं निभाए।
क्या कुछ पहले नहीं किया
जो अब नया है
या लगने लगता है।
वो झूठे दिलासे
वादे
साथ रहने की।
छोटा प्यारा वो आशियाँ
जहाँ बचपन खेला।
वो सारी उम्मीदें
यादें और……
चलो
एक जीवन में प्रवेश तो मिला
ये मज़बूत होंगें?
घर की लक्ष्मी बेटियाँ
सुनतें हैं जरूर।
लक्ष्मी किसे नहीं भाती
कौन पीछा छुड़ाना चाहता है इनसे?
पर क्या हुआ,
सरस्वती जहाँ रहेगी
लक्ष्मी तो स्वयं चलीं आएँगी।
सरस्वती को लाओ
लक्ष्मी की चिंता तुम मत करो।
——-सोनी सिंह
बोकारो(झारखंड)