घर की चाहत ने, मुझको बेघर यूँ किया, की अब आवारगी से नाता मेरा कुछ ख़ास है।
अस्थियों पर खड़ी, ये जो मेरी लाश है,
अब ना किसी भी भावना की मोहताज़ है।
महसूस नहीं होते हैं, अब दर्द नये,
घावों के इतने निशाँ, मेरे पास हैं।
अल्हड़ सपने थे मेरे भी, जो पूरे ना हुए,
बंद आँखों पे, मुझको ना अब विश्वास है।
झूठे वादों पे रखी, गयी थी नींव रिश्तों की,
हस्ती मेरी भी हुई, हाँ कभी ख़ाक है।
घर की चाहत ने, मुझको बेघर यूँ किया,
की अब आवारगी से नाता मेरा कुछ ख़ास है।
कभी साँसों को भाति थी, सुबह की शबनम,
पर अब रातों का अँधेरा हीं सर का ताज़ है।
बादलों को देख, चमकती थी आँखें वो मेरी,
अब तो बारिश भी, अश्कों को छुपाने का सिर्फ पाश है।
मृदु हृदय में, संवेदनाओं का था कोलाहल,
अब तो धड़कनों का भी, ना बचा कोई एहसास है।
पर ज़िन्दगी ने, नए आयामों से रूबरू है किया,
और ईश्वर पर हीं टिकी, मेरी हर एक आस है।
नयी राहों का तोहफ़ा, दिया है क़दमों को,
और रुकना मेरी फितरत को, ना अब रास है।