घनाक्षरी
दो घनाक्षरी
भींगें बदन तरुणी तरणी चढ़ ताल में ,
केश को झटक रही चाँद छिप जात है ।
रात का तिमिर भी निराश होय सिर धुने ,
पूर्णिमा का चाँद है कि अप्सरा की गात है ।
अंग प्रति अंग से जो रौशनी छिटक रही ,
मानो कि अँजोर जर्रे – जर्रे में समात है ।
चलती जो थम- थम पैजन बाजे झनन ,
हिय में हिलोर उठे ठुमरी सुनात है ।
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यमुना किनारे कृष्ण राधा को निहार रहे .
बसन सटा बदन राधा सकुचात है ।
हाथ जोड़ हटने का करती इशारा राधा ,
बन अनजान कृष्ण मंद मुसकात है ।
मुरली की धुन सुन गोपियाँ दीवानी भइ ,
करता मयूर नृत्य गईया रंभात है ।
लोक – परलोक को जो अंगुली नचाय रहे ,
वही ता ता थैया कर सबको रिझात है ।
…… सतीश मापतपुरी