घनाक्षरी — वेणु-वादन प्रसंग
वेणु-वादन प्रसंग से —
घनाक्षरी
(१)
देवलोकी देवियाँ भी , मुरली की धुन सुन,
देवलोक बैठी बैठी , सुध-बुध खोवे हैं ।
कोई होवे मूर्छित तो, कोई प्रिय मिलन की ,
लिखी आस लेके मन, धीरज को खोवे हैं।
अखियों के द्वार हरि , मन मे बैठाय कर ,
मन मे ही कान्हा रूप, प्रेम बीज बोवे है ।
कंधों से गिरे चूनर , चोटियों से झड़े पुष्प,
सगरा आनन्द-वन, अभिभूत होवे है ।
( २ )
सुरभियो के बछड़े , वेणु मृदु ध्वनि सुन,
मुख पड़े दूध की भी निगल नही पावे है।
दैवी स्पर्श अनुभव, उर महसूस कर,
बारम्बार आखियों में, नीर छलकावे है ।
नाद के प्रभाव से ही, प्रभावित हो करके ,
सकुचा हैरान हुए, देह ठिठकावे है ।
दोनो कान खड़े हुए, हिरनी सी आँखे फाड़ ,
श्री कृष्ण चितवन की, झांकी झलकावे है।
( ३ )
देव अरु गऊ खग,इनकी क्या बात कहें,
वे तो सब सचेतन, जगत कहाते है ।
बाँकुरे के मिलने की,तीव्र आशंका लिए,
नदी के बीच भाँवरी, मन अकुलाते है ।
तरंग वत हाथों से,हरि पग स्पर्श कर,
पद्म उपहार दे के, चूम सकुचाते है ।
वेणु का संगीत सुन, धुन में मगन हुई,
अनहद संगीत को, मन में पहुँचाते है।
(४)
मनुहारी कोपलों की, डाली चुपचाप बैठ,
वृंदावन पाखी रूप,माधुरी लखावै है ।
विषयों से ध्यान हटा, जग से लगाव घटा ,
त्रिभुवन मोहे वेणु , धुन मन भावे है ।
ध्यान योग ऋषि जन, डूब डूब पाखी वृन्द,
बंसी निसृत गीत सुन , वे गुनगुनावे है ।
नेह सिक्त पिय छवि, अन्तस् में देख देख ,
अपना जनम बस,सफल बनावे है।
( मन गोकुल लीलावली से )
सुशीला जोशी, विद्योत्तमा
मुजफ्फरनगर उप्र