घनाक्षरी गीत…
जीवन हुआ है भारी, लुटतीं खुशियाँ सारी, विरह-विदग्धा नारी, प्रिय को पुकारती।
कहाँ गए तुम नाथ, क्यों छोड़ गए यूँ साथ, झुकाऊँ कहाँ ये माथ, सोच न मन पावे।
रो-रोकर बीते रात, दग्ध मन अकुलात, मदन मंद मुस्कात, चैन न चित्त आवे।
मन में भरे उमंग, सखियाँ प्रिय के संग, नाचत मोड़ के अंग, कंटक बुहारती।
जीवन हुआ है भारी, लुटतीं खुशियाँ सारी, विरह-विदग्धा नारी, प्रिय को पुकारती।
मदन लगाए घात, करे बहुत उत्पात, शुष्क अधर औ गात, विरह झुलसावे।
देख ये दशा विचित्र, सखि छिड़कती इत्र, निरख प्रिय का चित्र, धीर न धर पावे।
प्रफुल्लित दिग्दिगंत,आया है देखो बसंत, आओ न अब तो कंत, राह मैं निहारती।
जीवन हुआ है भारी, लुटतीं खुशियाँ सारी, विरह-विदग्धा नारी, प्रिय को पुकारती।
सम्मुख खड़ा बसंत, आए नहीं घर कंत, करो कृपा भगवंत, राह सुझाओ कोई।
आए न मुँह में बैन, तड़पूँ मैं दिन-रैन, गया कहाँ सुख-चैन, कब से नहीं सोई।
पड़ी मुश्किल में जान, करते प्रान पयान, पाऊँ किस विध त्राण, मन में विचारती।
जीवन हुआ है भारी, लुटतीं खुशियाँ सारी, विरह-विदग्धा नारी, प्रिय को पुकारती।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )