घटा-सी छा रही थी
घटा-सी छा रही थी, छा गई क्या ?
बरस जाएगी ये बदली नई , क्या ?
चाँद छिपने के लिए तैयार बैठा ;
घटा की आँख में आई ,नमी क्या ?
ग़मों की राह से चलके, अभी ही ;
ज़िंदग़ी आ रही थी, आ गई क्या ?
शौक पाला जबसे मैंने दर्द का तो ;
और सुंदर बन गई मेरी हँसी क्या ?
बिन पर उड़कर, बिन पग चलकर ;
कयाम़त आ रही थी, आ गई क्या ?
– ईश्वर दयाल गोस्वामी ।