घटायें गर करके हिसाब चली जाती
घटायें गर करके हिसाब चली जाती
खिज़ाएं होके परेशान चली जाती
दीद गर हो जाती उस नूर-ए-नज़र की
इन बुझी आँखों की थकान चली जाती
साज़ बिठाकर गुनगुनाकर कही होती
दिल की गलियों में आवाज़ चली जाती
आ जाती गर वक़्त पे बहार-ए-ख़्वाब
में लेकर महकता गुलाब चली जाती
भूले से ही सही आई तो है मोहब्बत
वरना वो मुझसे अंजान चली जाती
रौनक है दो जहाँ की तुम से ही दिल में
ज़िंदगी बेसबब और बेजान चली जाती
काश के खोले होते पंख ख्वाबों ने
उनको ‘सरु’ देकर परवाज़ चली जाती