गज़ल
मंजिलों को खटकता हूँ
दर-ब-दर जो भटकता हूँ ।
हैसियत और हसरत के
दरमियां ही लटकता हूँ ।
सिर्फ टेबल बदलता है
फाइलों सा अटकता हूँ ।
रोज़ जीना जहर पीना
खूं के. आँसू गटकता हूँ ।
ले खुदा आ. गया दर पे
मैं भी अब सर पटकता हूँ ।
-अजय प्रसाद