गज़ल :– फ़िर भी जला है आग सा मेरा बदन तमाम ।
*गज़ल :– फ़िर भी जला है आग सा मेरा बदन तमाम ॥
तरही गज़ल
मापनी
221—2121–1221–212/2121
देखा है करके आज ये हमने जतन तमाम ।
फ़िर भी जला है आग सा मेरा बदन तमाम ।
नायाब इक चिराग सा उठता रहा धुआँ ।
दो बूँद आँसुओं से जला बांकपन तमाम ।
आए वो अपने हुस्न के जलवे बिखेर के ।
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम ।
मेरे नगर में कर रहे दंगे फ़साद जो ।
जालिम लपेट के रखे थे पैराहन तमाम ।
मासूम सी निगाह फरेबी जुबान थी ।
उनकी नज़र का हम किये हैं आकलन तमाम ।
अनुज तिवारी “इंदवार”