गज़ल :– ज़ख्म मेरे ही मुझे सहला रहे हैं ।।
गज़ल :– ज़ख्म मेरे ही मुझे सहला रहे हैं ।।
बहर :- 2122–2122-2122
ख्वाब बन आँखों में अब वो छा रहे हैं ।
ज़ख्म मेरे ही मुझे सहला रहे हैं ।
मन्नतों में जो कभी मांगे हमें थे ,
आज क्यों नज़रें चुराकर जा रहे हैं ।
कर्ज हम रखते नहीँ ज्यादा किसी का ,
उनकी यादें तोल कर लौटा रहे हैं ।
कातिलाना है बड़ी उनकी अदायें ,
अब शहर में जुल्म बढ़ते जा रहे हैं ।
कत्लखानों में ज़रा मंदी हुई क्या ,
देखो वो गंगा नहा कर आ रहे हैं ।
देखिए दहलीज ये पानी में डूबी ,
आप ऐसे आँख क्यों छलका रहे हैं ।
गज़लकार :– अनुज तिवारी “इंदवार”