गज़ल-सागर ओ मीना
मंजर-ए-तमाशा -ए -दुनिया मेरे आगे
होता है हर रोज़ नया तमाशा मेरे आगे
इक खेल ए हार जीत है मासूम ज़िन्दगी
क़िस्मत भी खिलाती है क्या गुल मेरे आगे
गुम नाम सूरत-ए-हाल है नहीं मुझे मंज़ूर
मिट गई देखते देखते मेरी हस्ती मेरे आगे
क़श्तियां मेरी रह गयीं मौजों से टकरा के सर
किया करते थे सलाम कभी सैलाब मेरे आगे
मत पूछ के मेरा हाल क्या है दिलभर तेरे बगैर
बनके गैर अपने लूट रहे मेरी दौलत मेरे आगे
खामोश होकर देखिए अंदाज़-ए-गुले गुफ्त्गु
छलके है जैसे पैमाना-ए-सहबा मेरे आगे
होगा गुमाने रश्क़ अगरचे मैं कुछ कहूं तो
बेशक लिया करेंगे नाम उनका मेरे आगे
ज़मीर मेरा रोके है तो खींचे है मुझे गुनाह
जाऊं किधर अभी तो ये मसला मेरे आगे
आशना है दिल तेरा हम साक़ी तेरे गुलाम
किस किस को बुरा कहती दुनिया मेरे आगे
वस्ले यार की आरजु में दिन कैसे गुज़ारें
शब-ए-हिज्र के बाद है शबे वस्ल मेरे आगे
होंगे नहीं खतम अभी ईम्तिहांन मेरे यहां
आया ना इस सफर में क्या-क्या मेरे आगे
आंखों में चमक होटो पे लरज की वजह तुम हो
बिखरे पड़े हैं जब तलक ये पैमाने मेरे आगे
जीना हुआ मुहाल सागर ओ मीना बगैर
पूछो जरा ‘ग़ालिब ‘ से अच्छा मेरे आगे