गज़ल (सभी पाने को आतुर हैं , नहीं कोई चाहता देना)
गज़ल (सभी पाने को आतुर हैं , नहीं कोई चाहता देना)
जिसे चाहा उसे छीना , जो पाया है सहेजा है
उम्र बीती है लेने में ,मगर फिर शून्यता क्यों हैं
सभी पाने को आतुर हैं , नहीं कोई चाहता देना
देने में ख़ुशी जो है, कोई बिरला सीखता क्यों है
कहने को तो , आँखों से नजर आता सभी को है
अक्सर प्यार में ,मन से मुझे फिर दीखता क्यों है
दिल भी यार पागल है ,ना जाने दीन दुनिया को
दिल से दिल की बातों पर आखिर रीझता क्यों है
आबाजों की महफ़िल में दिल की कौन सुनता है
सही चुपचाप रहता है और झूठा चीखता क्यों है
गज़ल (सभी पाने को आतुर हैं , नहीं कोई चाहता देना)
मदन मोहन सक्सेना