गज़ल:- वो सफ़र इक़ सही साथ हम तुम रहे…..
बह्र-ए-मुतदारिक
अरकान – फाइलुन मुसम्मन सालिम
वो सफ़र इक़ सही साथ हम तुम रहे।
ग़ैर खुशियों से अच्छा तेरा ग़म रहे।।
वो सफर ही नहीं चंद लम्हों का जो।
साथ सदियों का हो फिर भी पल सम रहे।।
मील के पत्थरों से भी हमने कहा।
फ़ासले अब बना लो गुज़र हम रहे।।
आसमाँ से कहा और ऊँचे उठो।
मेरी मंज़िल है तूँ जीत में दम रहे।।
आँधियों से न रोके रुकूँगा कभी।
मेरी मंजिल रहे और हमदम रहे।।
‘कल्प’ में अब भी अपने ऊफाँ इतना है।।
बर्फ की वादियों में न खूँ जम रहे।।
✍? अरविंद राजपूत ‘कल्प’