गज़ल :– समझो अदब में झुकती है टहनी गुलाब की ।।
गज़ल :– समझो अदब में झुकती है टहनी गुलाब की ।।
बह्र :– 221—2121—1221–212
काफ़िया :– आब
( जवाब ,नवाब गुलाब ,अजाब ,जनाब ,इंकिलाब ,आफ़ताब )
रदीफ :– की
गज़लकार :– अनुज तिवारी “इंदवार”
तलवार से ही जोर है जुर्रत ज़बाब की ||
देखा कलम से झुक गई गर्दन नवाब की||
नाज़ुक हैं फूल! गर कोई चाहे मसल दे पर,
समझों अदब में झुकती है टहनी गुलाब की||
यह मुल्क बट रहा है यूँ मज़हब के नाम पर,
सोचो उठेगी कब वो लहर इंक़िलाब की||
नासूर गुल की दास्तां ये भवरे को क्या पता,
नासूर से ही तो बनी कीमत शबाब की ||
है जोर बाजुओं में की पत्थर को तोड़ दे,
पर प्यार में है खस्ता-ए-हालत जनाब की||
लोगों ने इस कदर से अँधेरे को चुन लिया,
चुभने लगी है रोशनी भी आफ़ताब की||
बेनूर इन फिजाओं में रंगत कहाँ ‘अनुज’
किसको पड़ी है फ़िक्र ये उजड़े अज़ाब की ||