ग्रीष्म ऋतु
कोयल काली कूक रही है
अम्बुआ की डाली डाली ।
सुबह सबेरे फुदक रही है
मुदित मगन हो मतवाली ।।
बुलबुल लेकर तान सुरीली
मधुर कण्ठ से गाती है ।
छत की मुंडेरों पर बैठी
पल पल में उड़ जाती है ।।
खेतों में हिरणों के कुनबे
रम्य कुलाँचे भरते हैं ।
ऊपर से भी कूद निकलते
नहीं किसी से डरते हैं ।।
उमस भरी तपती दोपहरी
कृषक खेत में जाते हैं ।
खाली खेतों को निहार कर
अपना मन बहलाते हैं ।।
बाट जोहते सब मेघों की
नभ की ओर नजर करते ।
नीर भरे आएंगे एक दिन
ग्रीष्म तपन से न डरते ।।