ग्रहण
यह कैसा ग्रहण लगा है ,
मेरे जीवन को भगवान !
ना ही मुक्ति मिले दुख से ,
ना ही तन से छूटे प्राण ।
ग्रहण ऐसा जो हमारे सम्पूर्ण ,
अस्तित्व पर है छाया हुआ ।
हमारा आत्मविश्वास और ,
हमारा स्वाभिमान घायल हुआ ।
हमारी समझ और विचारों को ,
जैसे जंग सा लगा हुआ है ।
हमारी रचनात्मकता ,कार्य कुशलता
को लकवा मारा हुआ है ।
उड़ता है केवल मन ऊंची उड़ान ,
तन को तो बेड़ियां बंधी हुई ।
पंख काटे हुए है हालातों ने ,
मैं मुसीबतों के दलदल में हूं धंसी हुई ।
नसीब है रूठा हुआ यूं ही ,
और भगवान ! तुम हो बेपरवाह ,
कैसे पुकारूं ,कितना पुकारूँ,
तुम सुनते क्यों नही मेरी आह ।
यह तो मानना ना मुमकिन है ,
की तुम मेरी तरह मजबूर हो ।
बल्कि न ही तुम नादान और ,
ना ही मेरी तरह कमजोर हो।
तुम चाहो तो क्या नहीं कर सकते ,
पल में भाग्य बदल सकते हो ।
किसी को कभी भी नर्क से निकालकर ,
स्वर्ग में स्थापित कर सकते हो ।
फिर मेरी तरफ तुम्हारी नज़र क्यों नहीं?
बोलो भगवान ! मेरे जीवन का ग्रहण तुम ,
दूर करते क्यों नहीं?
मिट जाए यह ग्रहण ,
तो कुछ थोड़ा सा मैं भी जी लूं ।
खुशहाल जीवन क्या होता है ,
मैं भी तो यह जान लूं।
मृत्यु से पहले तो मैं मरना नहीं चाहती,
अपने अरमानों को अधूरा नहीं छोड़ सकती ।
मगर लगा हुआ है जो मेरी अभिलाषाओं पर ग्रहण ,
उसे स्वयं तो दूर नहीं कर सकती ।
बहुत हाथ पांव मारती रही हूं अब तक ,
और अब भी यह प्रयास जारी है।
और कहां तक लड़ूं हालातो से ,नसीब से ,
अब तुम ही कुछ करो ,
कोशिश करने की बारी अब तुम्हारी है ।
” अनु” को तो है बस तुम पर भरोसा ,
और तुम ही हो मेरा एकमात्र सहारा।
तुम ही कर सकते हो एक पल में ,
मेरा इस ग्रहण से निबटारा ।