गोवर्धन पर्वत
? श्री राधे राधे जी ?
. “गोवर्धन पर्वत का व्रज आगमन”
जब भगवान कृष्ण ने गौलोक धाम की रचना की, और सारे गोप ग्वाले और यमुना वृंदावन सबकी रचना की तब एक दिन रास मंडल में श्री राधिका जी ने कोटि मनोजमोहन वल्लभ से कहा, “यदि आप मेरे प्रेम से प्रसन्न हैं तो मेरी एक मन की प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हूँ।” तब श्यामसुन्दर ने कहा, “मुझसे आप जो भी मांगना चाहती हैं माँग लो।”
श्री राधा जी ने कहा, “वृंदावन में यमुना के तट पर दिव्य निकुंज के पाश्र्वभाग में आप रास रस के योग्य कोई एकांत एवं मनोरम स्थान प्रकट कीजिये। यही मेरा मनोरथ है।” तब भगवान ने तथास्तु कहकर एकांत लीला के योग्य स्थान का चिंतन करते हुए नेत्र कमलों द्वारा अपने ह्रदय की ओर देखा उसी समय गोपी समुदाय के देखते-देखते श्रीकृष्ण के ह्रदय से अनुराग के मूर्तिमान अंकुर की भांति एक सघन तेज प्रकट हुआ रास भूमि में गिरकर वह पर्वत के आकार में बढ़ गया वह सारा का सारा पर्वत रत्नधातुमय था, सुन्दर झरने लताये, बड़ा ही सुन्दर।
एक ही क्षण में वह पर्वत एक लाख योजन विस्तृत ओर शेष की तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया, उसकी ऊँचाई पचास करोड योजन की हो गई, पचास कोटि योजन में फैल गया, इतना विशाल होने पर भी वह पर्वत मन से उत्सुक सा होकर बढ़ने लगा। इससे गौलोक निवासी भय से विहल होने लगे। तब श्री हरि उठे और बोले, “अरे प्रच्छन्न रूप से क्यों बढ़ता जा रहा है।” यह कहकर श्री हरि ने उसे शांत किया। उसका बढ़ना रुक गया उस उत्तम पर्वत को देखकर राधाजी बहुत प्रसन्न हुई।
जब भगवान पृथ्वी पर अवतार लेने वाले थे तब भगवान ने गौलोक को नीचे पृथ्वी पर उतरा और गोवर्धन पर्वत ने भारतवर्ष से पश्चिमी दिशा में शाल्मली द्वीप के भीतर द्रोणाचल की पत्नी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया।
एक समय मुनि श्रेष्ठ पुलस्त्य जी तीर्थ यात्रा के लिए भूतल पर भ्रमण करने लगे उन्होंने द्रोणाचल के पुत्र श्यामवर्ण वाले पर्वत गोवर्धन को देखा उन्होंने देखा कि उस पर्वत पर बड़ी शान्ति है जब उन्होंने गोवर्धन कि शोभा देखी तो उन्हें लगा कि यह तो मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष प्रद प्रतीत हो रहा है।
मुनि उसे प्राप्त करने के लिए द्रोणाचल के समीप गए पुलस्त्य जी ने कहा, “द्रोण तुम पर्वतों के स्वामी हो मै काशी का निवासी हूँ तुम अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दो काशी में साक्षात् विश्वनाथ विराजमान है मै तुम्हारे पुत्र को वहाँ स्थापित करना चाहता हूँ उसके ऊपर रहकर मै तपस्या करूँगा।” पुलस्त्य जी की बात सुनकर द्रोणाचल पुत्र स्नेह में रोने लगे और बोले, “मैं पुत्र स्नेह से आकुल हूँ फिर भी आपके श्राप के भय से मै इसे आपको देता हूँ फिर पुत्र से बोले बेटा तुम मुनि के साथ जाओ।”
गोवर्धन ने कहा, ” हे मुने ! मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो योजन चौड़ा है ऐसी दशा में आप मुझे किस प्रकार ले चलोगे।” पुलस्त्य जी ने कहा, “बेटा तुम मेरे हाथ पर बैठकर चलो जब तक काशी नहीं आ जाता तब तक मैं तुम्हें ढोये चलूँगा।” गोवर्धन ने कहा, “मुनि मेरी एक प्रतिज्ञा है आप जहाँ कहीं भी भूमि पर मुझे एक बार रख देंगे वहाँ की भूमि से मै पुनः उत्थान नहीं करूँगा।” पुलस्त्य जी बोले, “मैं इस शाल्मलद्वीप से लेकर कोसल देश तक तुम्हें कहीं नहीं रखूँगा यह मेरी प्रतिज्ञा है।”
इसके बाद पर्वत पाने पिता को प्रणाम करने मुनि की हथेली पर सवार हो गए। पुलस्त्य मुनि चलने लगे और व्रज मंडल में आ पहुँचे गोवर्धन पर्वत को अपनी पूर्व जन्म की बातों का स्मरण था व्रज में आते ही वे सोचने लगे कि यहाँ साक्षात् श्रीकृष्ण अवतार लेंगे और सारी लीलाये करेंगे। अतः मुझे यहाँ से अन्यत्र नहीं जाना चाहिये। यह यमुना नदी व्रज भूमि गौलोक से यहाँ आयी है। और वे अपना भार बढ़ाने लगे।
उस समय मुनि बहुत थक गए थे, उन्हें पहले कही गई बात याद भी नहीं रही। उन्होंने पर्वत को उतार कर व्रज मंडल में रख दिया। थके हुए थे सो जल में स्नान किया, फिर गोवर्धन से कहा, अब उठो ! अधिक भार से संपन्न होने के कारण जब वह दोनों हाथों से भी नहीं उठा, तब उन्होंने अपने तेज से और बल से उठाने का उपक्रम किया। स्नेह से भी कहते रहे पर वह एक अंगुल भी न हिला तो वे बोले, “शीघ्र बताओ, तुम्हारा क्या प्रयोजन है।”
गोवर्धन पर्वत बोला, “मुनि इसमें मेरा दोष नहीं है मैंने तो आपसे पहले ही कहा था, अब मैं यहाँ से नहीं उठूँगा।” यह उत्तर सुनकर मुनि क्रोध में जलने लगे और उन्होंने गोवर्धन को श्राप दे दिया। पुलस्त्य जी बोले, “तू बड़ा ढीठ है, तुझे अपने आकार का बहुत घमण्ड हो गया है इसलिए तू प्रतिदिन तिल-तिल क्षीण होता चला जायेगा।
यह कहकर पुलस्त्य जी काशी चले गए और उसी दिन से गोवर्धन पर्वत प्रतिदिन तिल-तिल क्षीण होते चले जा रहे हैं। जैसे गोवर्धन गौलोक धाम में उत्सुकता पूर्वक बढ़ने लगे थे उसी तरह यहाँ भी बढ़े तो वह पृथ्वी को ढक देंगे यह सोचकर मुनि ने उन्हें प्रतिदिन क्षीण होने का श्राप दे दिया। जब तक इस भूतल पर भागीरथी गंगा और गोवर्धन पर्वत है, तब तक कलिकाल का प्रभाव नहीं बढ़ेगा।
———-:::×:::———-
***************************************************
“जय जय श्री गोवर्धन महाराज”
***************************************************