गोपालन हवे, गोपूजन नव्हे (अर्थात गौपालन करें, गौपूजन नहीं)
इन दिनों देश में क्षद्म राष्ट्रवाद का बुखार चरम है. लोग अपनी राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रवाद का परिचय तरह-तरह से दे रहे हैं. उनमें से एक तरीका गौरक्षा भी है. गौरक्षा के नाम पर इंसानों की जानें ली जा रही हैं. उत्तर प्रदेश के दादरी का अखलाक हत्याकांड आपके सामने प्रमुखता से है जिसे मात्र इस शक की बुनियाद पर घर से बाहर निकाल कर मार डाला गया कि उसने अपने घर पर गौमांस रखा हुआ है. देश के इन हालातों के बीच जब मुझे हिंदुत्व के विचार की बुनियाद रखने वाले विनायक दामोदर सावरकर के गौपूजन और गौरक्षा को लेकर विचार मालूम हुए तो मैं आश्चर्यचकित रह गया. उनका मानना था कि गाय की पूजा करना मानव जाति का स्तर गिराना है. इस संबंध में विनायक दामोदर सावरकर द्वारा मराठी भाषा में लिखी गई किताब विज्ञाननिष्ठ निबंध भाग-1 और भाग-2, स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक प्रकाशन, मुंबई ने प्रकाशित की थी. इस किताब के अध्याय 1.5 का शीर्षक है- गोपालन हवे, गोपूजन नव्हे. हिंदी में इसका अनुवाद होगा-गाय का पालन करें, गौपजून नहीं. उनके इस खास अध्याय का हिंदी अनुवाद में यहां पेश कर रहा हूं.
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यह स्वाभाविक ही है कि लोगों को गाय अच्छी लगे. गाय लंबे समय से हमारे साथ रही है. वह हमें कई चीजें उपलब्ध करवाती हैं. उसका दूध, अनाज के साथ मिलकर हमारे शरीर का विकास करता है. जो गायें रखते हैं उनके लिए ये परिवार के किसी सदस्य जैसी ही बन गई है. हिंदुओं का करुणापूर्ण मन और हृदय गायों के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है.
हम गाय के प्रति समर्पित हैं क्योंकि वह इतनी उपयोगी है. यह हमारा कृतज्ञता बोध है जो उसे दैवीय बना देता है. जो लोग गाय की पूजा करते हैं यदि उनसे आप पूछें कि गाय पूजनीय क्यों है तो वे सिर्फ यह बताते हैं कि वह कितनी उपयोगी है.
यदि गाय की पूजा इसलिए की जाती है कि वह इतनी उपयोगी है तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि उसकी देखभाल इतनी अच्छी तरह से हो कि उसकी उपयोगिता ज्यादा से ज्यादा बढ़ सके? यदि गाय का सबसे अच्छा उपयोग करना है तो सबसे पहले आपको उसकी पूजा बंद करनी पड़ेगी. जब आप गाय की पूजा करते हैं तो आप मानव जाति का स्तर नीचे गिराते हैं.
ईश्वर सर्वोच्च है, फिर मनुष्य का स्थान है और उसके बाद पशु जगत है. गाय तो एक ऐसा पशु है जिसके पास मूर्ख से मूर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती. गाय को दैवीय मानना और इस तरह से मनुष्य के ऊपर समझना, मनुष्य का अपमान है.
गाय एक तरफ से खाती है और दूसरी तरफ से गोबर और मूत्र विसर्जित करती रहती है. जब वह थक जाती है तो अपनी ही गंदगी में बैठ जाती है. फिर वह अपनी पूंछ (जिसे हम सुंदर बताते हैं) से यह गंदगी अपने पूरे शरीर पर फैला लेती है. एक ऐसा प्राणी जो स्वच्छता को नहीं समझता, उसे दैवीय कैसे माना जा सकता है?
ईश्वर सर्वोच्च है, फिर मनुष्य का स्थान है और उसके बाद पशु जगत है. गाय को दैवीय मानना और इस तरह से मनुष्य के ऊपर समझना, मनुष्य का अपमान है.
ऐसा क्यों है कि गाय का मूत्र और गोबर तो पवित्र है जबकि आंबेडकर जैसे व्यक्तित्व की छाया तक अपवित्र? यह एक उदाहरण दिखाता है किस तरह हमारी समझ खत्म हो गई है.
यदि हम ये कहते हैं कि गाय दैवीय है और उसकी पूजा हमारा कर्तव्य है तो इसका मतलब है कि मनुष्य गाय के लिए बना है, गाय मनुष्य के लिए नहीं. यहां उपयोगितावाद की दृष्टि जरूरी है : गाय की अच्छी देखभाल करें क्योंकि वह उपयोगी है. इसका मतलब है कि युद्ध के समय, जब यह अपंग हो सकती है, इसे न मारने की कोई वजह नहीं है.
यदि हमारे हिंदू राष्ट्र के किसी अभेद्य नगर पर हमला होता है और रसद खत्म हो रही है तो क्या हम नई रसद आने तक इंतजार करेंगे? तब राष्ट्र के प्रति समर्पण, सेना की कमान संभाल रहे नेता के लिए यह कर्तव्य निर्धारित करता है कि वह गोवध का आदेश दे और गोमांस को खाने की जगह इस्तेमाल करे. यदि हम गाय की ऐसे ही पूजा करते रहे तो हमारे सैनिकों के सामने फिर यही विकल्प होगा कि वे भूख से मर जाएं और नगर पर दूसरों का कब्जा हो जाए.
यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बात नहीं है कि गाय पूज्य है, जैसी मूर्खतापूर्ण और सरल धारणा ने देश को हानि पहुंचाई है. इतिहास बताता है कि हिंदू साम्राज्यों को इस मान्यता की वजह से हार का मुंह देखना पड़ा है. राजाओं को अक्सर युद्ध हारने पड़े क्योंकि वे गाय की हत्या नहीं कर सकते थे. मुसलमानों ने गाय को ढाल की तरह इस्तेमाल किया क्योंकि उन्हें भरोसा था कि हिंदू इस पशु को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे.
जो बात गायों के लिए सही है, वही मंदिरों के लिए भी कही जा सकती है. जब एक शक्तिशाली हिंदू सेना ने मुल्तान पर आक्रमण किया तो वहां के मुसलमान शासक ने पवित्र सूर्य मंदिर तोड़ने की धमकी दे दी. इसके तुरंत बाद हिंदू सेना वहां से लौट आई. ठीक यही तब हुआ जब मल्हारराव होलकर काशी को स्वतंत्र करवाने वहां पहुंचे. लेकिन जब मुसलमानों ने वहां मंदिर तोड़ने, ब्राह्मणों की हत्याएं करने और जो भी हिंदुओं के लिए पवित्र है, उसे अशुद्ध करने की धमकी दी तो उन्होंने अपने कदम वापस खींच लिए.
कुछ गायों, ब्राह्मणों और मंदिरों को बचाने जैसी मूर्खता के कारण देश का बलिदान हो गया. इसमें कुछ भी गलत नहीं था यदि देश के लिए उनका बलिदान किया जाता. हर एक मुसलमान आक्रमणकारी को युद्ध जीतने दिया गया क्योंकि हिंदू गाय और मंदिर बचाना चाहते थे. इस तरह पूरा देश हाथ से चला गया.
विकल्प दो हैं जिनमें से एक को चुनना है. उपयोगितावादी दृष्टि और धर्मांधता की जकड़न. धार्मिक ग्रंथ और पुजारी सिर्फ यही कहते हैं कि यह पाप है और यह पवित्र है : वे यह नहीं बताते कि क्यों? विज्ञान धर्मांधता से अलग है. वह चीजों की व्याख्या करता है और हमें सही या गलत जानने के लिए वास्तविकता का परीक्षण करने की अनुमति देता है. विज्ञान हमें बताता है कि गाय उपयोगी है इसलिए हमें उसे नहीं मारना चाहिए लेकिन यदि वह मनुष्य की भलाई के लिए अहितकर सिद्ध हो तो वह मारी भी जा सकती है.