गोत्र
“द्वार खोल राधिका …” रजनी ने तेजी से दरवाज़ा पिटते हुए कहा। तक़रीबन दो मिनट बाद दरवाज़ा खुला। अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों और बालों को ठीक करते हुए, राधिका का प्रेमी किसनवा दरवाज़े पर रजनी को खड़ा देख मुस्कुराया और अपनी रावणकार मूछों को ताव देता हुआ वहाँ से चलता बना।
प्रेमी के चले जाने के करीब एक मिनट बाद राधिका आँखें तरेरते हुए बाहर निकली, “क्या है रे, रजनी की बच्ची सारा खेल ख़राब कर दिया?”
“कैसा खेल?” रजनी चोंकी, “और ये बता किसनवा के साथ अन्दर क्या कर रही थी?”
“भजन-कीर्तन …” कहते हुए राधिका ने चोली का हुक ठीक किया।
“बेशर्मी की भी हद होती है, यही सब करना है तो शादी क्यों नहीं कर लेती किसनवा से!”
“देख किसनवा हमारे ही गोत्र का है, इसलिए उससे शादी नहीं हो सकती, पंचायत और गाँव वाले हमें मिलकर मार डालेंगे!” कहते हुए राधिका ने अपना भय प्रकट किया, “भूल गई कैसे हरिया और लाली को मारा था पिछले साल गाँव वालों ने।”
“और ये सब, जो तुम कर रहे हो क्या ठीक है?”
“देख रजनी अपने गोत्र में शादी करना, ग्रामीण समाज की नज़र में भले ही अपराध है, मगर अपने प्रेमी के साथ प्यार का आदान-प्रदान करना, न कभी ग़लत था न होगा।”
“ये एक नई परम्परा शुरू कर रही हो तुम!” रजनी ने अफ़्सोस ज़ाहिर किया।
“ये सवाल तुम उस समाज से क्यों नहीं पूछती, जो आन-बान-शान को निभाने और झूठी जात-पात को बचाने के लिए ऐसे शादीशुदा जोड़े की हत्या कर देते हैं!” कहकर राधिका ने मुँह बनाकर “हूँ” किया और नहाने के लिए गुसलख़ाने की तरफ़ बढ़ गई।