गेरुआ रंग
मैं कई बार उठती हूँ
फिर बैठ जाती हूँ,
अपने मन के दरवाजे पे
सहमी सी खड़ी रह जाती हूँ
देख के धीरे- धीरे उडते गेरुआ रंग को
मेरे शहर के कोने -कोने में छाते हुए,
फिर जोर से चिल्ला देती हूँ ना … ना … ना …
मैं व्याकुल हूँ सोच के
कि रंग कैसे जाति भेद का शिकार हो गया
गाय माता हो गई तो पिता कहाँ खो गया ?
सर्व धर्म समभाव वाला देश मेरा
सम्प्रदायवादी कैसे हो गया ?
हैरान हूँ मैं,
कैसे इतने बरस
कहती रही रंग और जाति भेद -भाव को
हाँ … हाँ … हाँ …
(सिद्धार्थ )