गृहिणी तू
गृहिणी तू तो है सबसे महान
गृह रूपी जहाज की कप्तान।
घर के हर प्राणी का रखें ध्यान
सामंजस्य तालमेल आलिशान।
लुटा स्वर मधु करें कटु विषपान
फिर भी रहती चेहरे पर मुस्कान।
शील-सहजता का पहन परिधान
सूरत , सीरत हो काव्यछंद विधान।
अन्नपूर्णा कहलाएं पकाएं नित पकवान
गृहस्थ नौका में नहीं आएं कुछ व्यवधान।
सूझबूझ से समझी रहे स्वंय सावधान
परेशानी को पहले भाप करले समाधान ।
छोड़ा घर नेहर अपने जन्म का आसमान
सखी-सहेली जननी जनक धरा खलिहान।
पर आंगन में आती छोड़ सब अरमान
वहां सबको अपना माने थे जो अंजान ।
बड़े बुजुर्ग का रखती मन तन से ध्यान
नहीं चाहती खुद की हो अपनी पहचान।
वंश वृद्धि तुमसे ही जन्म देती नई जान
मातृत्व निभाती बिन स्वार्थ ना अभिमान ।।
जुटी रहती रहे सुसंस्कृत उसकी संतान
देवी धरणी मंगल करती यही है निशान।
आंसू छिपे आंखों में, हो तन पर थकान
अधीन रहे स्वामी सुत के नहीं तेरा मकान ।
अविरल धारा सी बहती रह नारी तू महान
तेरी महिमा का भी करें वेद पुराण गुणगान।।
-सीमा गुप्ता, अलवर