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14 May 2017 · 1 min read

गृहस्थ मंदिर की पुजारिन

आँ खों की उदासी न दिखा किसी को क्योंकि यह कमजोरी को बयां करती है।
तेरी आँ खों की चमक में कामयाबी झलकती है ।
माना मैंने कि बचपन खू बसूरत दौर है ज़िन्दगी का।
किन्तु गृहस्थ का आलम भी नसीब से महयसर हुआ करता है।
गृहस्थ का यह रूठना मनाना सब मुक्क़दर की बात है वर्ना कहाँ कोई इस तरह मनाता है
जो बात अपने हाथ से बनाये सादे खाने मे वो 5स्टार होटल के खाने मे कहाँ।
जो रसोई मे भजन गुनगुनाकर बनता है प्रसाद जैसा उसे एक पुजारी और भगवान से बेहतर कौन जाने । जो सूकून देवदर्शन से होता है वही प्यार परोसने से पा लिया मैंन।
मुझे तो न बचपन मे उदासी थी न
अब जब पा रही थी अब दे रही हूँ
माध्यम तब भी मैं थ अब भी मैं हूँ।तब पा रही थी अब दे रही हूँ। ।
वात्सल्य लुटाना और पाना किस्मत की ही बात है।
वरना एक औरत की क्या बिसात है।
इस गुण के कारण वह रेखा सृष्टि मे सर्वश्रेष्ठ है

Language: Hindi
1 Like · 339 Views
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