गृहणी
शीर्षक – गृहणी
तुम बहुत ही सुंदर हो
हां लेकिन अब पहले जैसी नहीं हो
घर की जिम्मेदारियों ने घेर रखा है तुम्हें
एक कमरे को सजाने में उलझी हो
बाल बिखरे हुए हैं आंखों में आ रहे हैं
अपने मैले हाथों से उन्हें हटा रही हो
आईने के सामने आकर मुस्कुरा रही हो
चहरे पर जो मुस्कान है उसे छिपा रही हो
पति ऑफिस चले गए हैं
बच्चों को अपनें साथ ले गए हैं
आज़ टिफिन बना नहीं पाई हो
कल रात से बुखार में तप कर आई हो
फिर भी लगी हुई हो घर संभाल रही हो
बिना कुछ बोले समझें मानो अपना धर्म निभा रही हो
यूं भाग भाग कर घर जल्दी सज़ा रही हो
अभी तो बर्तन कपड़े बाकी हैं यह सोचते हुए घबरा रही हो
चक्कर सा लग रहा है दिमाग़ घूम रहा है
फिर भी अपने आप पर मुस्कुरा रही हो
झूठी संतावना दे रही हो खुद को ऐसे ही ठीक कर रही हो
कर काम…… लो हो जाएगा थोड़ा सा तो और रह गया है
अपने आप को समझा रही हो ,,,,.,,मैं नहीं करुंगी तो कौन करेगा फिर?
ऐसे अनगिनत सवाल उठा रही हो
किचेन में वो सफ़ेद चाय का कप ज्यो का त्यों धरा पड़ा है
तुम काम में उलझी हो चाय पीने का होश नहीं है
बस काम जल्दी खतम करके खाना बनाना है बच्चें आते होंगे
यही सोचकर जल्दबाजी में अपनी उंगलियां काट रही हो
उस घाव को धोकर थोड़ा सा सिसक कर हल्दी लगा रही हो
सबकुछ बन गया है अब रोटियां बना रही हो घी लगा रही हो
बच्चों को खिलाकर ख़ुद खा रही हो फिर उन्हें थोड़ी देर सुला रही हो
बच्चें सो गए हैं अब रात्रि भोजन की तैयारी में फिर से उलझ गई हो
सुबह से शाम हो गई लेकिन ख़ुद के लिए समय नहीं निकाल पाई हो
तभी ……सहेली का फ़ोन आते देख तुम्हारे चेहरे पर रौनकें आईं हैं
फिर बातों ही बातों में घंटों बिताई हो, घर घर की कहानियों में
फिर अपने गम भुला रही हो , आज़ तो बीत गया कल क्या बनाऊंगी
यही विचारते विचारते नींद में कहीं दूसरी दुनियां में जा पहुंची हो
जिस सुनहरी दुनियां में तुम जा पहुंची हो बह दुनियां तुम्हारे भीतर है
जहां की महारानी हो तुम, कुछ देर के बाद सो चुकी हो गहरी नींद में जा चुकी हो
_सोनम पुनीत दुबे