गुल
गुल तो गुल हैं सदके में बिछे रहते हैं
खार बेकार ही शाखों पे खड़े रहते हैं
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गुल फैलाते हैं हर सूं खुशबु अपनी
खार तो खार हैं फिर चुबे चुबे रहते हैं
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सीख तू इंसा गुलों से जीने की अदा
मिटके औरो के लिए भी सजे रहते हैं
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ख़ौफ़ नही कोई भी मुरझाने का जिन्हें
गुल कुछ ऐसे पतझड़ में खिले रहते हैं
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झुक जाते हैं जो वक्त आने पे कपिल
दरख़्त ओ इंसा वही बाकी बचे रहते हैं
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कपिल कुमार
06/12/2016
दरख़्त…..पेड़
खार…….काँटे