गुलिस्ता ए कारवार
गुलिस्ता ए “कारवार”
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फितरत में नहीं था
कभी कवि बनना हमारे ।
मजबूर कर दिया हमे
गुलिस्ता ए “कारवार”ने।।1।।
कभी समंदर की लहरों से
खेलते हुए किनारों ने।
तो कभी घने जंगलों की
पत्तों की सरसराहट ने।
मजबूर कर दिया हमे
गुलिस्ता ए “कारवार” ने।।2।।
ऊंचे ऊंचे पहाड़ों से
गुजरती हुई सड़को ने।
तो कभी ऊंचाई से गिरती
पहाड़ के झरनों ने।
मजबूर कर दिया हमे
गुलिस्ता ए “कारवार” ने।।3।।
अटखेलिया करते हुए
पशु , पक्षी के विहार ने।
नदियों की सर्पिली
मोड पे बहते पानी ने।
मजबूर कर दिया हमे
गुलिस्ता ए “कारवार” ने।।4।।
चार शब्द कभी न सूझे
किसी के प्यार में।
मजबूर कर दिया हमे
गुलिस्ता ए “कारवार” ने।।5।।
मंदार गांगल “मानस”