‘गुलाब कहूँ की नागफ़नी’
क्या फ़र्क पड़ जाना है अब भी
और क्या फ़र्क़ पड़ जाता तब भी ,
तुम्हें समझना सिर्फ़ उतना है
जितना तुम चाहते हो ,
मैं लौटूं या रुकूँ …
कौन सा रुख तुमको मेरी ओर करना है
सर रखने को हज़ार शाने तब भी थे
और अब भी ….
घोंसलों की क़ीमत समझा वही करते हैं
जिन्होंने कभी कोई घोंसला बनाया भी हो ,
वो भला क्या समझेंगे क़ीमत किसी घोंसले की
जिन्होंने कोई घोंसला देख के
पेड़ को ही सर से पाँव तक काट दिया हो
तुम्हें कल भी तुम्हीं सही लगते थे
और आज भी ,
ये रवायतें तो तुम्हारी ही हैं
सिर्फ़ एक तुम सही हो
बाकी तो हर इंसान ग़लत का मुलम्मा चढ़ाये घूम रहा ,
तुम रह लो अपनी अनाओं और अपने रंगीन मसलों के साथ ,
और भी रह लेंगे अपने सूने चमन के साथ ,
कम से कम उसमे कोई गुलाब तो न होगा
ऐसा जो बस कांटे चुभो
लहू का क़तरा दर क़तरा बहा दे |
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’