गुलगुले
अभी परसों ही माता जी से बात हुई थी पर बहुत कम देर, मन बेचैन था । सोचा लाओ फोन करते हैं । स्वयमेव फोन मिला दिया जैसे !
“अम्मा चरण-स्पर्श ”
“खुश रहो दुलहिन ”
“और अम्मा आप सब कैसे हैं..”
“बिटिया ……..10 दिन से घर में सब्जी नहीं बनी, तुम्हारे पापा नाराज होते हैं । चाय में दूध नहीं पड़ा। चल-फिर तो पाते नहीं हम लोग, ये तो सुन भी नहीं पाते, मैं सुना करती हूँ । घर में तुम्हारा कमरा कबाड़घर बन गया है । सुवास ने पूरा कमरा अपना कर लिया है दुलहिन”
“अम्मा ! मैंने बीच में उन्हे रोकना चाहा,
कुछ खाया है अम्मा ?
“बिटिया लाई खाई थी थोड़ी सी…सुवास की बीवी हमसे तो कहती नहीं, पर सुनाई पड़ जाता है, घर में घी, चीनी सब कम है। बुढ़ापे ने जाने कौन सा..फालतू में खर्च बढ़ा दिया है बिटिया….
अम्मा फिर शुरू होने जा रही …… मेरी आँखे द्रवित हैं …..
अम्मा अपने मन में कितना गुबार भरे हैं…..कभी मुंह से नहीं बोलती ….आज क्या हो गया है ?
“हैलो बिटिया ….सुन रही हो ना”
मेरी सोचने की प्रक्रिया भंग हो गयी..
हाँ अम्मा ! बताओ सब ठीक है ?
“हाँ बेटा सब ठीक है ; पर मेरा मन नहीं लगता है यहाँ, दम घुटता है …..
मेरे आगे तुम लोग चले गये..फिर मैंने तुम्हे फोन नहीं किया, तो किसी ने कराया भी नहीं..
झगड़े फिर भी होते रहे कि तुम अचानक कभी आ जाओगी …
बिटिया तुम्हारे जाने के बाद पता चला …..
वो तेल तुम्हारे दिखावे में लगाती थी, दो बार कह चुकी हूं बिस्तर के नीचे से बदबू आती है, एक बार तुमने सफाई करते करते मरी हुई चुहिया निकाली थी … तुमको तो सब मना करते थे कि झाड़ू काम वाली लगा जाती है … हम सब सुनते थे । तुम फिर भी आकर ……….दुलहिन..
जबसे तुम गयी हो …बिस्तर के नीचे गंदगी में इन सबकी असलियत छुपी है”
मेरा मन भर आया, मैंने बीच में अम्मा को टोकते हुए कहा, “अम्मा दवा खा लो तो बात करो”
” दवा ! वो तो कब से नहीं आयी”
“कोई बीमारी फैल रही है …. सुवास बाजार तो जाता है, चाकलेट, लेज़ वगैरह घर लाता है पर दवा की दुकान में वाइरस है कोई”
अम्मा ..कोई आया है लगता है …. फोन रखना पड़ेगा!
“अच्छा दुलहिन चिंता न करना … हमने अपना बिस्तर तुम्हारे कमरे में लगवा लिया है ; तुम आना तो मेरे पास सोना, थोड़ा पैर भी दबा देना, वाइरस ना हो तो मेरी दवा भी ला देना और हां थोड़ा गुलगुला बना लाना बेटा ….हमें कुछ मना नहीं किया डाक्टर ने पर…….. वाइरस…
और हाँ बेटा …. तुम्हारे कमरे की बिजली कट गयी है …. पड़ोसन आज पकौड़ी दे गयी थीं …तुमको याद कर रहीं थी…. बेटा तुम ये सब किसी से ना कहना ….. मुझे तुम्हारे साथ रहना अच्छा लगता है, जब तुम आना मुझे चिपका के सुला लेना …. ये लोग कह रहे थे मुझे वाइरस पकड़ न ले इसलिए खाना कम देते हैं..
और हाँ बिटिया … मुझे माफ कर देना …. मैंने तुमको कभी अपना प्रेम जताया नहीं … क्योंकि मुझे पता है तुम हमें अपना समझती हो ….तो तुम गुस्सा नहीं होगी कभी ।
अच्छा बेटा अब रखो… सब ठीक है”
चरण स्पर्श कह कर मैंने भारी मन से फोन काट दिया ।
मन उथल-पुथल के मध्य फँस गया । तभी सहसा मैंने गुलगुले बनाने का विचार बनाया …… पैर में आलता लगाया ….. माँग भरी ….. सीधे पल्ले की साड़ी पहन कर मैं… एक पोटली में ढेरों गुलगुले रखकर चल पड़ी ….अम्मा के पास । अम्मा को मैं सजी धजी पसंद जो थी ।
घर के बाहर भीड़ देख माथा ठनका ।
क्या हुआ ?
अम्मा चली गयीं..
हाय ! मैं बड़ी स्तंभित ….अरे ?
तभी एक पड़ोसन आयीं …”अरे दुलहिन ..आज ही तो पकौड़ी बना के दे गई थी मैं, पूरा समय कहती रहीं कि तुम आई हो…….असल मे 5 दिन हो गये…. थोड़ा सनक गयी थीं अम्मा। सुवास ने तुम्हें नहीं बताया?”
मै अचांनक अम्मा के पैरो से लिपट के रो पड़ी…..
“नहीं अम्मा ऐसे नहीं जा सकती है….नहीं ऐसा नहीं हो सकता ……”
कह कर मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। मेरे कानो में उनके शब्द गूॅंजते जा रहे थे.. और मेरे सारे गुलगुले ..उनके पैरों पर फूल की तरह बिखर गए…
समाप्त
स्वरचित
रश्मि संजय श्रीवास्तव
रश्मि लहर
लखनऊ