गुरू भक्त एकलव्य
मां मुझको सुना ऐसी कहानी
वीर हो यैसा
जिसने दी हो गुरू के लिए कुर्बानी।।
सुनो बेटा तुम ऐसी कहानी
वीर एक ऐसा बलिदानी।।
हस्तिनापुर के क्षुद्रो में
एक वीर हुआ स्वाभिमानी।।
नाम था एकलव्य उसका
था वह बहुत सहासी।।।
देख कर अर्जुन की प्रशंसा
जागी धनुधर बनने की इच्छा।।।
इच्छाओ के भण्डारण को लेकर
एक अच्छा धनुधर की आकांक्षा लखकर।।।
गुरू द्रोणाचार्य के पास पहुंचा
शिक्षा लेने का प्रस्ताव रख्खा।।।।
क्षुद्रो को न शिक्षा दे
राज गुरू होकर में।।।।
निराश होकर वह लौट रहा
मन विचार कर दौड रहा।।।
सिखनी है शिक्षा गुरू से
मन ही मन संकल्प किया।।।।
बेटा कुछ तुम को समझाई
मां यही कहानी यही कहानी।।।।
फिर क्या हुआ आगे बतलाओ
गुरू बिन कैसे सिखी शिक्षा हाल बताओ।।।।
जंगल में वह पहूँच गया
मिटटी से मूर्त सजाई ।।।।।
लगा प्रयास फिर करने लागा
विधा में तन मन है लागा। ।।।
अभ्यास नित्य प्रति करने लागा
कुछ ही समय बह कुशल हुआ।।।
कैसे प्रयास ने सफल किया
बना वीर एक कुशल धनूधारी।।।
एकाग्रता ही शक्ति हमारी
गुरू की भक्ति में सब हारी।।।
प्रेरणा दी उसने सबको सारी
सीख सकता है हर कोई
उसकी जैसी भक्ति से
साधना की शक्ति से। ।।।
एक दिन सब शिष्य गुरू संघ
पहूचे उसी वन। ।
देख उसे फिर स्वान
भागा मूह पछाड। ।
उठाके धनुष वाण भर दिया मूह सप्त बाण।।
देख स्वान की ऐसी दशा
शिष्यो से फिर न रहा
देखा न कभी धनुधर ऐसा। ।।
जो छोड सके ऐसी रेखा
गुरू का सिर झुक रहा था
अर्जुन का वचन झूठ लहा था।।
गुरू ने मागी एकलव्य से दीक्षा
दान देने की थी उसकी इच्छा। ।
गुरू उसकी और मुसकाय
दाया अंगूठा उससे ले आये।।।
इस तरह अर्जुन श्रेष्ठ हुये
गुरू का यू वचन रहा।।।
गुरू ने ये आशिर्वाद दिया
जहा पे गूरू की बात होवे
तहा तुम्हारा नाम दिया। ।।।।।।।।।।।