“अंतर्द्वंद”
अंतर्द्वंद चल रहा,
क्या गलत किया,
क्या ठीक किया,
बच्चों को पढ़ाया – लिखाया,
आकाश छूने भेज दिया,
दौलत की चाह में,
आशियाना सूना किया,
न बच्चों का कलरव,
न ही उमंग – उल्लास,
जहाँ देखो निराशा ही निराशा,
न कोई हँसी – ठठ्ठा,
बुजुर्ग सभी रह गये,
घर – घर न रहकर,
खाली मकां बन गया,
रहने वाले भी,
बेजान पुतले ज्यों घूम रहे,
होठों की हँसी,
मन का सुकून,
लगता है कहीं खो गया,
भरे – पूरे परिवारों को देखते हैं,
खिलखिलाने की आवाज़ें आती हैं,
अंतर्मन के कोने को वो छेद जाती हैं,
धीरे – धीरे अकेलेपन से इंसा छीज रहा,
किस से कहें और कैसे कहें,
अपनी ही चाहत ने हमें लूट लिया,
जब भी हम कहीं जाते हैं या वो आते हैं,
हम फूले नहीं समाते हैं,
नाती – पोतों का तुतलाना,
मन को बहुत हर्षाते हैं,
उनके आते ही,
वीराने जन्नत में बदल जाते हैं,
उम्र के कुछ पल बढ़ जाते हैं,
“शकुन” हम भी उन्हें देख – देख,
खूब इठलाते हैं,
काश ! ऐसा हो जाये,
हर घर – परिवार मुस्कुराये।।