गुरु
गमों में उलझी थी जिंदगी मेरी,
बस अंधेरों का ही साया था।
दर -दर भटकता लक्ष्य हेतु मैं,
जब तेरा आशीष न पाया था!!!
मंदिर भी गए, मस्जिद भी गए,
हर जगह ही शीश झुकाया था।
मिली न फिर भी कामयाबी हमें,
जब तेरा आशीष न पाया था!!!
आयेंगे धीरे-धीरे रौशनी जीवन में,
जब ये विश्वास का पाठ पठाया था।
तीतर -बितर था मुसाफिर- सा मैं,
जब तेरा आशीष न पाया था!!!
करना डट के सामना मुश्किलों का,
हरदम ये ब्रह्मास्त्र सिखाया था।
दूर हुए गम सारे,मिल गए लक्ष्य मेरे,
जब ब्रह्मास्त्र ये तेरा अपनाया था!!!
ये कविता मेरे सबसे प्रिय शिक्षक श्री दिवाकर मिश्र को समर्पित हैं। आप सभी गुरुजनों के चरण कमलों में सादर प्रणाम और गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं।
खुशबू खातून
सारण,बिहार