” गुरु दक्षिणा “
डॉ लक्ष्मण झा” परिमल ”
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गुरुओं को प्रणाम करने की परंपरा अस्सी के दशक उपरांत विलुप्त होने लगी । पहले समर्पण की भावना थी । गुरु अपने शिष्यों के प्रति और शिष्य गुरुओं के प्रति । यह यही संताल परगना महाविद्यालय है जहाँ विद्यार्थी नियमित रूप से क्लास करते थे । कोई भी क्लास कभी भी खाली नहीं रहता था । प्राचार्य सुरेंद्र नाथ झा की पैनी दृष्टि लगी रहती थी । सारे प्राध्यापक एक साथ आते थे और सब साथ -साथ जाते थे । एक भी छात्र क्लास से बाहर नजर नहीं आते थे । हाँ , खाली पीरियड में हमारा एक कॉमन रूम होता था जहाँ हम आपने प्रिय इंडोर गेम खेलते थे अथवा पुस्तकालय में अध्यन करते थे । उन दिनों हम टेक्स्ट बुकों पर ही आश्रित थे । जब कभी हम अपने पाठ्यक्रम के संदेहों में घिर जाते थे । तो बेहिचक आपने गुरुओं के घरों में पहुँच जाते थे और वे हर संभव हमारी सहायता करते थे। प्रकाशक से आये स्पेसिमेन बुक भी हमलोगों को देते थे । हमारे अपने बनाये नोट्स को सस्नेह जांचते और परखते थे । …..इसलिए हमारा माथा उनके चरणों में हमेशा झुक जाता था और इसीको वे गुरु दक्षिणा मान लेते थे ।……काश ! वो दिन फिर लौट आये !
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डॉ लक्ष्मण झा” परिमल ”
दुमका