गुरु को तो मानो ,मगर गुरु की भी मानो….
इस कलयुग में कोई न कोई गुरु धारण ,
करने की प्रथा प्रचलित है।
मगर गुरु की शिक्षा को कौन है मानता,
यह सर्व विदित है।
कोई जन चाहे कितने भी सुशिक्षित हो ,
या हो किसी प्रसिद्ध पंथ के अनुयायी।
परंतु इतने पर भी किसी की ,
आधुनिक युग में भी मानसिकता न बदल पाई।
अपने पराए का भेदभाव ,छल कपट ,
ईर्ष्या द्वेष ,अहंकार अब भी विद्यमान है ।
किसी वरिष्ठ जन का करना आता ,
सभी को कहां आदर सम्मान है!
पूछे कोई इनसे जरा क्या तुम्हारे गुरु ने ,
तुम्हें यही सिखाया है ?
निसंदेह तुम्हें नहीं पता ,तुम्हारे इस आचरण ने
गुरु का मान घटाया है।
याद रखो ! कोई भी आदर्श गुरु नहीं चाहता,
केवल अपनी आत्म प्रशंसा और स्वभक्ति।
वोह तो चाहे सदैव तुम्हारा आत्म कल्याण ,
और तुम में हो संस्कारों की शक्ति ।
और मनुष्य के सुसंस्कार ही है
ईश्वर की साक्षात भक्ति।
अतः गुरु को तो मानते हो ,
किसी पंथ को मानते हो ,
उचित है ।
मगर गुरु की शिक्षा और उसके आदर्शों को भी मानो ,
यह मनुष्य के आत्म कल्याण हेतु सर्वोचित है।
केवल सत्संग में जाकर साधू महात्माओं के ,
वचनों पर स्वीकृति में जोर जोर से सिर हिलाना काफी नहीं।
मंदिरों में जाकर ढोल मंजीरे बजाना भी काफी नहीं।
यह पाखंड बिल्कुल जरूरी नहीं।
अन्ततः गुरु को तो मानो ,परंतु गुरु की भी मानो।
यह बहुत जरूरी है।