वो मूर्ति
“शहर के जाने-माने एरिया में स्थित यह कोठी काफ़ी पुरानी और बड़ी थी। कमरे भी बहुत से थे इस कोठी में। कभी इस कोठी में किसी मूर्तिकार का परिवार रहता था। परिवार सभ्य एवं सुसंस्कृत था। बहुत से सदस्यों वाला यह परिवार अत्यन्त खुशहाल एवं मस्त था।”
इस प्रकार मूर्ति ने अपनी कहानी का आरम्भ कर दिया, अब आप सोचेंगे कौन सी मूर्ति, कैसी कहानी? दरअसल शहर की यह पुरानी कोठी जिसमें स्थित मूर्ति से जुड़ी घटना का यहाँ वर्णन होने वाला है, से मेरा बचपन का कुछ लगाव सा रहा है। यही लगाव आज मुझे उम्र के इस पचासवें पड़ाव में यहाँ ले आया है। बचपन में कभी मिलना हुआ था उस मूर्तिकार व उसके परिवार से। तभी उसकी तराशी बहुत सी मूर्तियाँ भी देखने को मिली थीं। आज जब यहाँ पहुँची तो सब बदला हुआ है। मूर्तिकार नहीं रहा। परिवार भी शायद उसके बाद बिखर गया है। कुछ ही सदस्य यहाँ पहुँचने पर नजर आये किन्तु उन्हें मुझमें रुचि प्रतीत नहीं हुई अतः मैंने भी उन पर विशेष ध्यान नहीं दिया। इतना समय ही कहाँ है? मेरा आकर्षण तो मूर्तिकार व उसकी तराशी अनगिनत सुन्दर मूर्तियाँ हैं जो मुझे यहाँ तक लायी हैं। मूर्तिकार नहीं रहा, ऐसा औपचारिकता वश परिवार के यहाँ मौजूद एक सदस्य ने सूचित किया और अपने कार्य में व्यस्त हो गया। मूर्तियों के विषय में पूछने पर एक कमरे की ओर संकेत कर दिया। कमरा खोल दिया गया। मैं भीतर चली आयी, देखा कि कमरे की व्यवस्था बस ठीक-ठाक है और मूर्तियाँ भी केवल दो दिखीं – पहली मूर्ति गम्भीर, उदास झुर्रीदार चेहरा लिए बूढ़ी स्त्री की और दूसरी मूर्ति। हाँ; यह वही मूर्ति है जिसे मैंने बचपन में कभी देखा था। मूर्ति की विशेषता इसका भावपूर्ण चेहरा था जो स्वयं में सादगी भरी सुन्दरता संजोए था। गौर से देखा, यह आज भी ठीक वैसा ही था। एक अजब सी शालीनता, सौम्यता लिए, साथ ही आँखों की जीवंत चमक व होठों की निश्चल मुस्कान बरबस अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर लेती थी। मूर्ति एक युवती की थी। वर्षों बाद आज भी मूर्ति ने कमरे में कदम रखने व दृष्टि पड़ने के साथ ही सहज भाव से मुझे अपनी ओर आकर्षित कर लिया। कमरे की व्यवस्था व दूसरी मूर्ति की उपस्थिति भुला मैं एकटक इस मूर्ति को देखते हुए वहीं पास रखे एक पुराने स्टूल पर बैठ गयी और मूर्ति के भावपूर्ण चेहरे की सुन्दरता में खो गयी। मूर्ति भी जैसे मेरी प्रतीक्षा में थी। मेरी आत्मीयता की आँच पाते ही बोल उठी और अपनी कहानी सुनाने लगी।
” मूर्तिकार को अपनी कला से बेहद लगाव था किन्तु मूर्ति बनाना उसका शौक था, पेशा नहीं। वह अक्सर खाली समय में मूर्तियाँ बनाता था और करीने से उनका रखरखाव भी करता था। वैसे वो एक व्यापारी था और व्यापार द्वारा रोजी-रोटी कमाता था। अपनी तराशी मूर्तियाँ वह अक्सर अपने मिलने वालों को दिखाकर उनकी प्रशंसा प्राप्त करता, अनेकों बार मूर्तियाँ उपहार में अपने मित्रों व रिश्तेदारों को दे देता। धीरे – धीरे मूर्तिकार की उम्र ढलने लगी और स्वास्थ्य शिथिल पड़ गया। अब मूर्ति तराशने हेतु उसकी ऊर्जा व कुशलता उसका साथ नहीं देती थी, सो मूर्ति बनाना बंद हो गया। मूर्तिकार ने अपने जीवनकाल में जितनी भी मूर्तियाँ बनायी, उनमें से जो मूर्ति उसने सर्वप्रथम तराशी थी, वही उसे सर्वप्रिय थी। उस मूर्ति से उसका लगाव अटूट था। वह उससे इतना स्नेह देता, मानो वह मूर्ति न होकर उसकी पुत्री हो। उसे अपने कक्ष में वह विशेष देखरेख में रखता, अपने सुख – दुःख बाँटता, उसे सजाता –
संवारता। एक दिन इसी अत्यधिक लगाव के चलते मूर्ति मूर्तिकार के हाथों से छिटककर कमरे की दीवार से हल्के से टकराकर चोटिल हुई और उसके पाँवों में दोष आ गया। यह उन दिनों की बात है, जब मूर्ति बने कुछ ही दिन हुए थे। मूर्तिकार ने स्नेहवश इस दोष को सुधारने हेतु अपनी सम्पूर्ण कला का प्रयोग किया किन्तु दोष मिटना तो दूर छिप भी न पाया। देखनेवाले जब भी देखते नजरों में आ ही जाता। लेकिन मूर्ति का समस्त सौन्दर्य तो उसके चेहरे पर झलकता था। देखनेवालों की दृष्टि जब उसकी ओर उठती तो फिर हटाये से न हट पाती। यही कारण था कि मूर्तिकार को मूर्ति के लिए अत्यधिक प्रशंसा एवं सम्मान प्राप्त हुआ। रिश्तेदारों, मित्रों से मूर्ति चर्चित होते हुए आस – पास के लोगों में भी प्रशंसा पाती रही और मूर्तिकार के तो मानो इसमें प्राण ही बसने लगे। वक्त गुजरा, मूर्तिकार परलोकवासी हो गया। मूर्ति की देखरेख उसके उत्तराधिकारियों की जिम्मेदारी हो गयी। पहला उत्तराधिकारी पिता की भांति ही मूर्ति से लगाव रखता था। अतः उसने मूर्ति की देखरेख का प्रयास यथाशक्ति किया और व्यवस्था बनाए रखी। किन्तु उत्तराधिकारी की असमय मृत्यु के पश्चात मूर्ति की देखरेख समुचित न रही। मूर्ति आज भी चेहरे पर वही सौम्यता, सुन्दरता व जीवंतता का भाव लिये कक्ष में अपने स्थान पर खड़ी है। बूढ़ी स्त्री की मूर्ति भी समीप उसका साथ निभा रही है। उसकी आँखों में उदासी व गम्भीरता दोनों मूर्तियों के अकेलेपन को दर्शा रही है।”
“दीदी वापिस नहीं चलोगी क्या?” किसी ने हाथ कंधे पर रखकर हिलाया तो जैसे किसी स्वपन से जाग उठी मैं ! देखा तो मेरा मु्ँहबोला भाई राजी मेरे समीप खड़ा था। उठी और उठकर भारी कदमों से राजी के साथ चल पड़ी वापसी के लिए। जाते-जाते मूर्ति पर नजर डाली, वो खामोश लगी मानो सब कह चुकी हो। मैं भारी कदमों और भारी मन सहित राजी के साथ कोठी के बाहर खड़ी अपनी गाड़ी में आकर बैठ गयी। गाड़ी वापसी के लिए आगे बढ़ने लगी। साथ ही मेरे विचार भी बढ़ने लगे। सोच रही थी, क्या मूर्ति सचमुच बात कर रही थी या उसके चेहरे पर मेरे ही भाव थे? आखिर पिता और भाई के देहांत के बाद मैं भी तो सभी साथियों व रिश्तेदारों के बीच होकर उस मूर्ति की भांति ही अकेली हूँ। कुछ पास है तो ईश्वर की दी जिन्दगी के प्रति विश्वास, हौसला और उम्मीद कि जिन्दगी हर हाल में प्रभु से प्राप्त खूबसूरत वरदान है।
रचनाकार :- कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित, (रचनाकार)।
दिनांक :- ०१.०४.२०२१.