” गुमसुम कविता “
डॉ लक्ष्मण झा परिमल
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क्या करूँ ?
आज कल कविता नहीं बनती ,
कुछ रूठी -रूठी सी रहती है कविता मुझसे,
लाख मानता हूँ उसको
पर वह मौनता की चादर
ओढ़े रहती है !
गुमसुम किसी कोने में
मन ही मन बिलखती रहती है !
नज़दीक जाके,
उसे सहलाके,
प्यार से जब मैंने पूछा
तो उसने अपने दर्द बयां किया-
“जख्म तो मेरे तन बदन
में फैला है ,
पर उपचार कहाँ होता है ?
अब कहाँ “दिनकर” यहाँ हैं ?
कहाँ है कवियों में
वो साहस ,वो चेतना ?
जो मेरे नब्ज को टटोलें
असहिष्णुता ,रंगभेद ,हिंसा ,बलात्कार
नारी असुरक्षा ,हिन्दू मुस्लिम की पीड़ा
को भला अपने तराजू में तौलें ?
नरसंघार बच्चे ,बूढ़े ,औरत का
विश्व में हो रहा है !
कवि तो सिर्फ अपनी ख्याति के लिए
जदोजहद कर रहे हैं
सब अपनी सही
कविता को लिखना भूल गए हैं !!
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डॉ लक्ष्मण झा परिमल
साउंड हैल्थ क्लीनिक
एस 0 पी 0 कॉलेज रोड
दुमका
झारखंड
01.12.2024