गुड्डी की व्यथा
हम थे सखी अदृश्य पवन के,
हम गुड्डी थे निर्बंध गगन के।
कौन अबोध बालक ने हमको,
गगन समीर दिखाया ।
उसके दुर्बल कर से कट कर,
मेरा तन उस छत पर आया ।
जहाँ ममता की लेश नहीं है,
मन की करुणा से द्वेष सही है ।
बंध गयी स्वर्ण-जड़ित शीशे की बेरी में,
घृणा भाव, अति घनेरी में ।
ओह! मानव ! क्या कहूँ मैं तुझसे,
निज स्वार्थ भाव बैर किया है मुझसे ।
सुरपति कहते सब जीवों में श्रेष्ठ है मानव,
मैं हीं जानूँ , तू! कितना कपटी-कुटिल है दानव।
मैं सजावट सामग्री नहीं तू मुझे सजाओ,
गहनों से सजी पुतला नहीं, तु मुझे निहारो ।
मैं जग की प्यारी-सी बाल-खिलौना,
तू क्या जाने मेरा नाम सुन्दर-सलोना ।
सुरभि युक्त हम पुष्प चमन के,
हम गुड्डी थे निर्बंध गगन के ।
तभी अर्धखुली खिड़की से हल्की-हल्की हवा चली ,
मन थिरक-थिरक कर दौड़ चली।
घन-विहंग-वृंद संग खेलूँ मैं,
शिशु किलकारी संग निज को तौलूँ मैं ।
सिन्ध मुझे देख कल-कल लहराया,
विपिन मुझे देख निश्छल हर्षाया ।
मुझे छूने को तुड़्ग शिखर ललचाया,
मेरी चंचलता हर दिशा को भाया,
मुझे देख पुलकित था नील गगन का आंगन,
मेरे हेतु स्नेह छिटक रहा था धरा का प्रांगण ।
जाने किधर से खट! आवाजें आयी,
चंचल हृदय तत्क्षण अकचकाई ।
खुली अर्ध खिड़की का द्वार लगा,
क्यों खोया था मन, है न यहाँ कोई सगा ।
हाय देव! क्या भाग्य मैं पायी,
अभी था उजाला, अभी अंधियारी छाई ।
क्यों मेरा भाग्य मुझसे रूठ गया ,
दिवास्वप्न था अभी ,अब टूट गया ।
अश्रुधार बह गए नयन के,
हम गुड्डी थे निर्बंध गगन के ।
उमा झा