गीत
मुखड़ा-
ढोल-नगाड़े बाज रहे हैं,शाम सुहानी आई है।
‘विश्व-भवन’ में धूम मची है,द्वार बजी शहनाई है।
अंतरा
(1)
पीत रंग के लहँगा-चोली धानी चूनर लहराती,
कंगन, बिंदी, झुमका, पायल ‘माला’ पहने इतराती।
पा सत्कार झुका पलकों को मृगनयनी सी मदमाती,
चंचल चितवन चैन चुराकर नेह ‘गीत’ पर बरसाती।
इठलाती, बल खाती चल दी, अनुगामी मन मचल गया-
आओ झूमें, नाचें, गाएँ खुशहाली उर छाई है।
ढोल-नगाड़े बाज रहे हैं, शाम सुहानी आई है।
(2)
हल्दी तेल चढ़ा अंगों पर ,उबटन की सौगात है।
गौरा रूप लिया ‘मंजू’ ने आई शगुन की रात है।
स्वर्गलोक से देव कर रहे फूलों की बरसात है ,
हँसी-ठिठोली करती सखियाँ राग-रंग क्या बात है।
साजन के ताने सब मारें देख हाथ पर नाम लिखा-
“छोड़ चली बाबुल का आँगन प्रीत पिया की भाई है।”
ढोल-नगाड़े बाज रहे हैं,शाम सुहानी आई है।
(3)
घूँघट में तू शरमाएगी सजन नशे में झूमेंगे,
प्रेम-पाश में तुझे बाँधकर यौवन तेरा चूमेंगे।
जाम अधर से पीकर तेरा चैन-अमन भी लूटेंगे,
साजन तेरे मन भाएँगे संगी-साथी छूटेंगे।
सास-नंद जासूस बनेंगी तू नैहर को तरसेगी-
प्रीतम की पुतली बन रहना सीख यही सुखदाई है।
ढोल-नगाड़े बाज रहे हैं,शाम सुहानी आई है।
(4)
माँ का आँचल छोड़के लाडो हर बेटी को जाना है,
कुदरत का दस्तूर निराला हँसकर हमें निभाना है।
इस बगिया को सूनी करके वो घर तुझे बसाना है,
मैं दादी की सोनचिरैया घर क्यों हुआ बेगाना है?
बेटी न रख पाया कोई खेल-खिलौने रूँठ गए-
पत्थर रखकर अब सीने पर सहनी हमें जुदाई है।
ढोल-नगाड़े बाज रहे हैं,शाम सुहानी आई है।
‘विश्व भवन’ में धूम मची है, द्वार बजी शहनाई है।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर