गीत
“बुझता दिन बहुत रुलाता है”
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देख विरह की तपती संध्या
बुझता दिन बहुत रुलाता है,
दिवस ढले अँधियारा आकर
प्रीतम की याद दिलाता है।
तपित सूर्य थक कर लौटा है
नव कलियों का रूप खिलाकर
सागर तट मैं राह निहारूँ
उर के आँगन दीप जलाकर।
मिलनातुर मन क्रंदन करता-
मातम संगीत सुनाता है।
बुझता दिन बहुत रुलाता है।।
नभ छूने को आतुर पर्वत
यौवन से भर मदमाता है
विनम्र भाव का बोझा ढोता
श्यामल मेघ बरस जाता है।
चातक की चाह नहीं बुझती-
प्यासा जीवन अकुलाता है।
बुझता दिन बहुत रुलाता है।।
कलियों को गीत सुना भँवरे
मुख चूम-चूमकर दुलराते
उपवन में पसरा सन्नाटा
लौट परिंदे घर को आते।
तम की चादर भू ने ओढ़ी
अपनों का दर्द सताता है।
बुझता दिन बहुत रुलाता है।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर