गीत
कल लगता था सब विदित मुझे
अब लगता है कुछ पता नहीं।
हे बुनकर! मेरे जीवन के
मुझे एक सिरा भी मिला नहीं
कुछ टूटे फूटे तर्कों से
कुछ जिया – जियाया मिलजाना
या तो सब कुछ सिखला देते
या रहने देते अनजाना
इस भाग्य – कर्म के मध्य कहीं
कोई रेखा खींची होती
कब दोष तुम्हारा, कब मेरा
कुछ भूल – चूक समझी होती
निर्दोष रहे अपराधी भी
क्या मिला, गया कुछ गिना नहीं
तुम को जाना, मन को जाना
कुछ ज्ञात नहीं कितना जाना
इस पर भी बाकी लगता है
कुछ और समझना समझाना।
कुछ मिला हुआ ढोया हमने
कुछ ढोया कहकर नवाचार
अच्छा इतना ही बतला दो
हम मूढ़ हुए या समझदार ?
कुछ बुरा नहीं करना चाहा
पर हुआ सभी कुछ भला नहीं।
– शिवा अवस्थी