गीत
क्या हारे अंतरयुद्ध एक, खुद से ही रहे भागते हम।
बन गए निशाचर कब जाने, आँखों में रात काटते हम!
पहले जब आँख उनींदी हो, जगने की वजह पूछते थे।
नम आँखें देख, सभी मन के दुखने की वजह पूछते थे।
कहते थे पढ़ना ही है तो, दिन में भी तो पढ़ सकते हो।
कविताएं, गीत, शायरी सब, दिन में भी तो गढ़ सकते हो।
लेकिन पत्थर पर रस्सी को लोगों ने घिसना छोड़ दिया।
इसपर कुछ असर नहीं होगा, ये कहकर कहना छोड़ दिया।
फिर दिन वालों की दुनिया ने, दे दिया निकाला कब हमको।
हम अबतक समझ नहीं पाए, रातों ने संभाला कब हमको
निंदित कर दिया उजालों ने, फिर कैसे दिया बालते हम ?
बन गए निशाचर कब जाने, आँखों में रात काटते हम!
नानी कहतीं थीं रात गए, देवी – देवता उतरते हैं।
निशि भर धरती पर घूम घूम, अपनी ही सृष्टि निरखते हैं
पर कभी हमारे जगराते, क्यों उनको नज़र नहीं आते।
क्यों व्यथित हृदय के मौन हवन, आकृष्ट ध्यान न कर पाते।
क्यों नहीं पूछते वो हमसे, तुम रात-रात क्यों जगते हो ?
क्यों स्वर्ण आयु के युवा पत्र, दृग की स्याही से भरते हो ?
वो पूछें तो हम कह डालें, वो सब जो कहा नहीं अब तक,
आखिर क्यों उनकी दुनिया में, मन हमसे लगा नहीं अब तक ?
बोलो उन से निश्चिंत रहें, इंद्रासन नहीं चाहते हम।
बन गए निशाचर कब जाने, आँखों में रात काटते हम!
© शिवा अवस्थी