गीत
मन के कनक महल से जाना, याद नहीं जब सुख रख पाया।
तब मैंने ही सहज भाव से दुःख को आमंत्रण भिजवाया।
जैसे नन्हें ध्रुव को माँ ने,
स्वयं तपोमय मार्ग बताया ।
मदन काममय तीर चढ़ाकर,
महादेव के सम्मुख आया।
जैसे भागीरथ तप करके,
गंगा को धरती पर लाए।
हम आँखों की आचमनी में,
अपने सब आँसू भर लाए।
अभी वचन द्वै शेष पड़े हैं, जब भी मति ने याद दिलाया।
तब मैंने ही सहज भाव से दुःख को आमंत्रण भिजवाया।
मैंने लिक्खा कहो सुभागे,
तुम्हें याद हैं अपनी बातें ?
सूना कमरा, तकिया, आँखें
नदी किनारा, मधुरिम रातें ?
अच्छा! याद नहीं है तो भी,
पत्र पढ़ो यादें दोहराओ
रातें रास्ता देख रहीं हैं,
मन की देहरी तक आ जाओ।
मुस्कानों का अपना घर है, जब भी अधरों ने बिसराया।
तब मैंने ही सहज भाव से दुःख को आमंत्रण भिजवाया।
मुझे पता था दुःख की बदली,
धूप सुखों की ले जायेगी।
खाली सेज, दुआरा, खिड़की
एकाकीपन दे जाएगी…।
भावी सूनेपन का मैंने,
कुछ ऐसे उपचार किया है।
त्याग सभी भौतिक आभूषण,
चंदन अंगीकार किया है।
एक प्रश्न जब राजकुँवर को, बोधगया तक लेकर आया।
तब मैंने ही सहज भाव से दुःख को आमंत्रण भिजवाया।
©शिवा अवस्थी