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19 Jun 2022 · 1 min read

गीत

**एक गीत**

आशा कम विश्वास अधिक मेँ ,
अर्धोत्तर यह वयस ढल गई .
अपनोँ को समझा पाने मेँ ,
समझ स्वयं नासमझ बन गई ..

पुष्पार्जन की प्रत्याशा मेँ .
प्रेम प्रीत हर भाव बहे ।
निष्कँटक जीवन आशा मेँ .
जाने कितने घाव सहे ।।

अधरोँ की मधु प्याली जाने ,
कैसे कब ये गरल बन गई .
अपनोँ को समझा पाने मेँ ,
समझ स्वयं नासमझ बन गई

सुँदर प्रेम वल्लरी चढ़ ले .
प्राण प्रतान बनाए मैँने ।
तरु पल्लव का पतन रुका न ,
नाहक स्वप्न सजाए मैँने ।।

वासँती परिधान सजी तुम ,
कुटिल कोकिला काहे बन गई .,
अपनोँ को समझा पाने मेँ ,
समझ स्वयं नासमझ बन गई ….
*********************

सर्वाधिकार
@
अरुण त्रिवेदी अनुपम .

Language: Hindi
138 Views
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