गीत
**एक गीत**
आशा कम विश्वास अधिक मेँ ,
अर्धोत्तर यह वयस ढल गई .
अपनोँ को समझा पाने मेँ ,
समझ स्वयं नासमझ बन गई ..
पुष्पार्जन की प्रत्याशा मेँ .
प्रेम प्रीत हर भाव बहे ।
निष्कँटक जीवन आशा मेँ .
जाने कितने घाव सहे ।।
अधरोँ की मधु प्याली जाने ,
कैसे कब ये गरल बन गई .
अपनोँ को समझा पाने मेँ ,
समझ स्वयं नासमझ बन गई
सुँदर प्रेम वल्लरी चढ़ ले .
प्राण प्रतान बनाए मैँने ।
तरु पल्लव का पतन रुका न ,
नाहक स्वप्न सजाए मैँने ।।
वासँती परिधान सजी तुम ,
कुटिल कोकिला काहे बन गई .,
अपनोँ को समझा पाने मेँ ,
समझ स्वयं नासमझ बन गई ….
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सर्वाधिकार
@
अरुण त्रिवेदी अनुपम .