गीत
खुली पुस्तिका से जीवन को, काश! किसी ने जाना होता।
मुझको भी पहचाना होता।।
मुझको भी……
न जाने कितनी रातों को जगकर कितने सपने बोये,
दिन होने पर उन सपनो में कितने पाये, कितने खोये।
जीवन के इस पथ पर हमने कितनी बार ठोंकरें खायीं,
पलकें करके बंद न जाने कितनी दफा ये आंखें रोयीं।
इसीलिए है पता मुझे, मुश्किल ख्वाबों को पाना होता।।
तुमने गर ये जाना होता।
मुझको भी पहचाना होता।।
मेरे नेह भरे उर को, कितनों ने ही उपहास दिया है,
फिर भी मैंने दीपक सा जल, चारो ओर प्रकाश दिया है।
अपनों की उम्मीदों के पैमाने पर हर रोज नपा हूं,
अंधकार को चीर-चीरकर दिनकर जैसा रोज तपा हूं।।
रोज दिलासा देकर खुद को मुश्किल सब समझाना होता।
तुमने गर ये जाना होता।
मुझको भी पहचाना होता।।
किसको पता, कौन ये जाने, किसका कितना पानी-दाना,
है स्थायी किसी का भी न, इस दुनिया में ठौर-ठिकाना।
खाली हाथ सभी हैं आए, खाली हाथ सभी को जाना,
रंगमंच सी इस दुनिया में, सबको है किरदार निभाना।।
तुमने गर ये जाना होता।
मुझको भी पहचाना होता।।
-विपिन कुमार शर्मा
रामपुर