गीत
“आशाओं के दीप”
आशाओं के दीप जलाकर
सुंदर स्वप्न जगाए रखना,
नया जोश उल्लास भरे तुम
सुरभित सुमन खिलाए रखना।
मन में उपजी प्रीत पिया की
रोम-रोम हर्षित कर देती
एक नेह की अभिलाषा में
घर-आँगन पुलकित कर देती।
उदित भानु से जीवन में तुम-
जगमग ज्योति जलाए रखना।
सुंदर स्वप्न जगाए रखना।।
व्यथा बढ़े जब अंतर्मन में
रिश्ते-नाते टूट रहे हों
छोटी-छोटी खुशियों के क्षण
अपने अपनों से लूट रहे हों।
हर विपदा से टकरा कर तुम-
उम्मीद की डोर थमाए रखना।
सुंदर स्वप्न जगाए रखना।।
दुख-दुविधाएँ राह खड़े हों
मंजिल कोई सूझ न पाए
भवसागर में फँसी ज़िंदगी
कश्ती मेरी डूब न जाए।
बन नाविक पतवार सँभाले-
अपना साथ बनाए रखना।
सुंदर स्वप्न जगाए रखना।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ.प्र.)
“तुम बिन”
बसे किस देश में जाकर
यहाँ हमको भुला करके,
बहुत रोते सनम तुम बिन
रात सपने सजा करके।
(1)छुआ जब धूप ने तन को
भोर निद्रा जगा करके,
#अगन से जल उठा मन भी
चुभन तेरी दिला करके।
सुखाए केश अँगुली से-
तपन की लौ जला करके।
बहुत रोते सनम तुम बिन….
(2)#लगन चंदा-चकोरी सी
मिलन की आस रखती है,
सजा कर दीप द्वारे पर
सजन की राह तकती है।
जली ये तेल बिन बाती-
रीत जग की निभा करके।
बहुत रोते सनम तुम बिन….
(3)घटा घनघोर छाई है
#गगन भी फूट कर रोया,
जगूँ विरह की मारी मैं
ज़माना रात भर सोया।
तरसती नीर बिन मछली-
तड़प तेरी लगा करके।
बहुत रोते सनम तुम बिन….
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
भ्रूण की पुकार
———————-
प्रभु कृपा से गर्भ में आई
मुझे बचा लो मेरी माँ,
बोझ नहीं हूँ इस दुनिया पर
गले लगा लो मेरी माँ!
मैं आँचल की गौरव गाथा
चींखती लाचार होकर
तड़प-तड़प ममता पूछेगी
क्या मिला उपहार खोकर।
बेटी होना पाप नहीं है-
आत्म जगा लो मेरी माँ।
मुझे बचा लो…..
मैं भी तो हूँ अंश तुम्हारा
मुझको माँ स्वीकार करो
सीता, लक्ष्मी बन कर आई
बेटी पर उपकार करो।
बिलख-बिलख अनुरोध करूँ मैं-
पास बुला लो मेरी माँ।
मुझे बचा लो….
मातु-पिता की दुआ बनी मैं
कुल की शान बढ़ाऊँगी
अंतरिक्ष में भर उड़ान मैं
जग पहचान बनाऊँगी।
बेटा-बेटी कुल के दीपक-
मान बढ़ाओ मेरी माँ।
मुझे बचा लो….
मैं तेरे सपनों की गुड़िया
आँगन-द्वार सजाऊँगी
सुख-दु:ख का मैं सेतु बनकर
जीवन पार लगाऊँगी।
बेटी तो आधार जगत का-
शपथ उठा लो मेरी माँ।
मुझे बचा लो मेरी माँ!
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ.प्र.)
“परदेसी मीत”
परदेसी मीत मेरे
मेरी प्रीत बुलाती है,
बन जाओ गीत मेरे
तेरी याद सताती है।
बारिश के मौसम में
बूँदों की सरगम में
चूड़ी की खनखन में
पायल की छमछम में
संगीत बनो मेरे
नहीं राग सुहाती है।
परदेसी मीत मेरे….।
मेरी रातें सूनी हैं
मेरे दिन भी कुंवारे हैं,
बातें नहीं भूली हैं
अरमान सहारे हैं
दिख जाओ चाँद मेरे
रातें तड़पाती हैं
परदेसी मीत मेरे….।
तुझे कैसे दूँ संदेश
तुझे कैसे लिखूँ पाती
मेरे नयन लजाते हैं
मैं कुछ नहीं कह पाती
अहसास बनो मेरे
हर बात रुलाती है
परदेसी मीत मेरे….।
‘बुझाऊँ कैसे उर की प्यास?’
धुल गया माथे का सिंदूर
नियती कैसे बन गई क्रूर,
छिन गया जीवन से मधुमास
बुझाऊँ कैसे उर की प्यास?
पड़े जब रिमझिम सी बौछार,
याद आता है तेरा प्यार।
जल रहा कोमल मेरा गात,
सजन बिन सूनी काली रात।
बिछौना शूल सेज का आज-
उड़ाता सुख मेरा उपहास।
बुझाऊँ कैसे उर की प्यास?
रुत सावन की अगन लगाती,
भीगी चूनर बहुत रुलाती।
मीन सी तड़प रही दिन- रैन,
सुनूँ जब कोयलिया के बैन।
पवन मुझको भरके आगोश –
दिलाता तेरा है आभास।
बुझाऊँ कैसे उर की प्यास?
छलकता गागर से अब नीर,
आज तुम हर लो मेरी पीर।
सखी तू लेकर आ संदेश,
बसे हैं जाकर वो किस देश।
सजाकर नेह दीप निज द्वार-
बँधाती इन नैनों की आस
बुझाऊँ कैसे उर की प्यास?
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
“आ तेरा श्रृंगार करूँ”
इंद्रधनुष से रंग चुराके तुझको रँगना बाकी है
प्रीत बिना श्रृंगार अधूरा तेरा सजना बाकी है।
श्वेत रजत सी कोमल काया पाकर तू इठलाती है
चंद्र किरण सी मोहक सूरत चातक मुझे बनाती है
रात आ गई देख कुमुदनी तेरा खिलना बाकी है
इंद्रधनुष से रंग चुराके तुझको रँगना बाकी है…।
पुष्प ललित सौरभ को पाकर तेरे रस का पान करूँ
श्याम भ्रमर सा मैं मँडरा कर उपवन में गुंजार करूँ
प्रेम गीत बन कर अधरों का तेरा हँसना बाकी है
इंद्रधनुष से रंग चुराके तुझको रँगना बाकी है…।
उदित भानु की लाली पाकर तेरे माथे सज जाऊँ
मतवाले दो मृग नयनों में सुरमा बन कर बस जाऊँ
चंचल चितवन रूप निखारूँ मेरी रचना बाकी है
इंद्रधनुष से रंग चुराके तुझको रँगना बाकी है..।
तुझे बना कर कविता अपनी सपनों को साकार करूँ
अंग-अंग में थिरकन भर कर यौवन का गुणगान करूँ
भाव ओढ़ शब्दों को मेरे गहना बनना बाकी है
इंद्रधनुष से रंग चुराके तुझको रँगना बाकी है…।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
महमूरगंज, वाराणसी
“धरा”
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इंद्रधनुष से रंग चुराकर सुंदर रचना बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
बंजर भू के कोमल उर में नील नीर की धारा है
शोषित हो अपनों से हारी मानव ने संहारा है
जननी आज विदीर्ण हुई है मन का हँसना बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
सूखे तन की त्वचा फटी है रोम-रोम गहरी खाई
तप्त धरा मेघों को तरसी पीड़ित तन से अकुलाई
मूक- वेदना सहती प्रतिपल आस टूटना बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
हरिताभा को तरसी धरती धूप देह झुलसाती है
फूट गए कृषकों के छाले भूख बहुत तड़पाती है
सौंधी माटी की खुशबू में अंकुर खिलना बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
मुश्किल से घबराना कैसा प्यासी धरा सिखाती है
जो मन जीता वो जग जीता कर्मठता बतलाती है
दुर्गम राह विवशता छलती धैर्य धारणा बाकी है
दूर प्रदूषण जग से करके भू का सजना बाकी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
‘कागा दे संदेश पिया को’
गीत
कागा दे संदेश पिया को
सावन की रुत चमन खिलाए।
क्यारी-क्यारी महके बेला
मेरा भीगा बदन जलाए।
बैरी बदरा गरजे-बरसे
बागों में हरियाली छाई
मोर, पपीहा, कोयल झूमें
सावन रुत मतवाली आई।
राह तकूँ मैं दीप जलाकर-
पिया मिलन की लगन लगाए।
मेरा भीगा बदन जलाए।।
लंबी पेंग गगन को चूमे
गोरी का गजरा लहराए
धानी चूनर ,बहका कजरा
काले-काले बदरा छाए।
बूँदों ने छेड़ी है सरगम-
जगमग जुगनू वन इठलाए।
मेरा भीगा बदन जलाए।
पायल, बिंदी, चूड़ी, कुमकुम
जीवन का श्रृंगार सजन से
सखी-सहेली छेड़ें मुझको
हँसी-ठिठोली करें पवन से।
चमक रही है चमचम बिजली-
रिमझिम बारिश अगन लगाए।
मेरा भीगा बदन जलाए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका- साहित्यधरोहर